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________________ अतिमानी और अतिहीन असेव्य १६५ नवल-"मैं स्त्री का दास नहीं । मैं तो अपनी पत्नी के नित्य ५ जूते मारा करूंगा । मेरी दृष्टि में स्त्री इसी योग्य है।" . मित्र-“फिर हो गया तुम्हारा विवाह ! कौन लड़की ऐसी होगी, जो प्रतिदिन जूते खाने के लिए तुम्हारी पत्नी बनेगी।" . नवल ने आवेश में आकर कहा-"न होगी तो न सही। मेरी प्रतिज्ञा यही है कि जो स्त्री प्रतिदिन ५ जूते खायेगी, उसी के साथ मैं शादी करूंगा।" नवल के सदाचारी मित्र ने उसे कोई जवाब नहीं दिया, वह उठकर वहाँ से चल दिया। सहपाठी मित्र अपने अच्छे स्वभाव के कारण नवल को यदा-कदा समझाता था, किन्तु नवल की हृदयरूपी काली चादर पर कोई भी रंग न चढ़ा। नवल-विवाह योग्य हो गया था। अनेक श्रेष्ठी अपनी कन्याओं का विवाहप्रस्ताव लेकर हीरजी शाह के पास आते लेकिन नवल ने अपनी प्रतिज्ञा सेठ हीरजी को बताई तो सेठ ने अपना माथा ठोक लिया और मन ही मन कहा-'ऐसे कुपुत्र के होने से तो निःसंतान होना अच्छा । इसके साथ कौन कन्या विवाह करने को तैयार होगी।' नवल की जूते मारने की प्रतिज्ञा दूर-दूर तक फैल गई। लेकिन नवल को इसकी चिन्ता नहीं थी। उसका अहंकार इस दुराग्रह को कतई छोड़ने को तैयार न था। संयोगवश एक व्यापारी सेठ सपरिवार कुन्दनपुर आये । वे पांथशाला में ठहरे । साथ में उनकी गुणवती कन्या रम्भा भी थी । वे कन्या की सगाई करना चाहते थे। इसलिए सेठ हीरजी के पास आये। वहाँ नवल को देखकर वे मुग्ध हो गये । अपनी कन्या के साथ विवाह का प्रस्ताव रखा तो सेठ हीरजी ने नवल की कठोर और अमानवीय शर्त रखी। इस पर वह व्यापारी सेठ निराश होकर चला गया। रम्भा के पिता ने पांथशाला में पहुँचकर सारी बात कही। रम्भा ने भी नवल की प्रतिज्ञा सुनी तो वह बोली-“पिताजी ! श्रोष्ठि-पुत्र की शर्त मुझे मंजूर है । मैं उसके साथ विवाह करूंगी।" . . पिता--"बेटी ! मैं कठोर-हृदय होकर तुम्हें उस नालायक के गले कैसे मढ़ सकता हूँ ? क्या धरती पर सुन्दर वरों का दुष्काल है ?'' . रम्भा-"पिताजी ! आपकी पुत्री की बुद्धि की कसौटी का यह अवसर है । मैं अपने प्रयत्न से श्रोष्ठि-पुत्र को सुपथ पर ले आऊंगी और ऐसा उपाय करूंगी, जिससे वह स्वयं प्रतिज्ञा को तोड़ दे। तभी तो मैं नारी की महत्ता स्थापित कर सकूँगी।" रम्भा की बुद्धिमत्ता पर उसके माता-पिता को पूर्ण विश्वास था, फिर भी उन्होंने सब तरह से उसे समझाने का प्रयत्न किया। उसका दृढ़निश्चय जानकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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