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________________ अनवस्थित आत्मा ही दुरात्मा ११ जैसे उफनते दूध पर जल के छींटे मारने से उसका उफान रुक जाता है। आश्चर्यचकित जमींदार वहाँ से उठा और साधु के चरण पकड़कर बोला-"महाराज ! सचमुच मैं ध्यान में यही सोच रहा था कि मूर एण्ड कम्पनी से जूते खरीदने हैं, कौन-सा जूता ठीक रहेगा ? आपश्री ने मेरे मन की बात कैसे जान ली ?" . साधु ने मुस्कराकर कहा-"मन को बाहर भटकाना छोड़, अन्तर में झांकी कर । रंगीन चमक-दमक और ऊपरी दिखावे की आदतें छोड़। फिर ध्यान के समय सिर्फ भगवान का ही चिन्तन कर । जिस दिन तेरा चित्त एकाग्र हो जायेगा, उस दिन ऐसी सूक्ष्म मन की बातें तू भी जान सकेगा। अतः अपने अन्दर में बैठे भगवान या आत्मदेव को देख।" जप, तप, ध्यान, चिन्तन, स्वाध्याय आदि से अवश्य ही मनुष्य का कल्याण होता है, बशर्ते कि इनके साथ मन का तार जुड़ा हुआ हो, चित्त उसी में संलग्न हो, आत्मविकास के लक्ष्य से मन बाहर न भटकता हो। इस प्रकार आत्मा अवस्थित हो जाने पर आत्मसुधार की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया भी चल सकेगी। अन्यथा कोरे भजन, स्वाध्याय, जप, तप आदि से सब सद्गुण आ जायेंगे, ऐसा सोचना भ्रान्तिमूलक है। अगर ऐसा होता तो भारत में विचरण करने वाले ६०-७० लाख साधुओं की पलटन का कभी का कल्याण हो गया होता, वे सब के सब सद्गुणी और उच्च चारित्रशील पाये जाते और उनके निमित्त से भारत ही नहीं, सारा विश्व सुधर गया होता। इसलिए यह मानकर चलना होगा कि जब तक भजनादि के साथ लक्ष्य में एकाग्रता न होगी, चित्त उसी में ओतप्रोत न होगा, बाहर के बिषय-कषायादि जंगल में नहीं भटकेगा, साथ ही अपना व्यक्तित्व सुधारने तथा आत्मनिर्माण करने की समानान्तर प्रक्रिया पूरी सावधानी और तत्परता के साथ न चलाई जायेगी, तब तक केवल भजन आदि से बेड़ा पार नहीं होगा। जिसका अन्तःकरण बाहर की मलिनताओं और विषय-वासना की गंदगी को बटोरता रहता है, वह अनवस्थित आत्मा केवल भजन आदि से कैसे सदात्मा बन जाएगी ? वह तो दुरात्मा बनकर अधिकाधिक कर्मबन्धन करती रहेगी। निष्कर्ष यह है कि जब तक आत्मा अनवस्थित रहेगी, तब तक चाहे जितने भजन आदि किये जाएं, उनसे-केवल उनसे आत्मा दुरात्मा होती नहीं रुकेगी। ___ इसी प्रकार मानव जब किसी कार्य को आध्यात्मिक दृष्टि से पूर्ण वफादारी, दिलचस्पी, तन्मयता और लगन के साथ नहीं करता, उसकी आत्मा यश, कीर्ति, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि, स्वार्थलिप्सा, लोभवृत्ति आदि में लग जाती है, वह अपने काम में सतत जागरूकता और सतर्कता नहीं रखता, तब वह अनवस्थित की कोटि में पहुँच जाती है और अनवस्थित आत्मा दुरात्मा बन ही जाती है। अवस्थित आत्मा प्रत्येक कार्य को भगवान की पूजा-सेवा समझकर पूरी सतर्कता के साथ करता है। वह समझता - है कि प्रत्येक कार्य एक कला है, चाहे वह छोटा हो या बड़ा। जिस तरह कलाकार For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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