SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ अपनी कला से प्रेम करता है, उसमें तन्मयता के साथ खो जाता है, उसके प्रति दिलचस्पी और लगन का अटूट स्रोत उमड़ पड़ता है । तब वह कार्य ही निश्चित रूप से उसके लिए वरदान बनकर उस कलाकार को धन्य बना देता है। __ रुचि, लगन और तत्परता के साथ कार्य करने से मनुष्य की शारीरिक, मानसिक शक्तियों पर नियन्त्रण और व्यवस्था कायम होती है, अन्तःक्षेत्र में उठने वाली विघटनात्मक ध्वंसात्मक वृत्तियों पर संयम होता है। उसकी बुद्धिमत्ता, शक्ति, कार्यक्षमता और सफलता को संरक्षण और पोषण मिलता है। बाह्य क्षेत्र में भी कार्य की क्रम-व्यवस्था ठीक-ठीक निर्धारित हो जाती है। जनता उसके कार्य की, उसकी क्षमता की और सामर्थ्य की प्रशंसा करती है। उसकी आत्मशक्तियां विकसित हो उठती हैं। और इस प्रकार कुल मिलाकर उस अवस्थित व्यक्ति की आत्मा श्रेष्ठ और विकासशील बन जाती है। फिर कार्य में मन न जमना, शिकायतें करना, नुक्स निकालना, कार्य की कठिनाइयों को बढ़ा-चढ़ाकर तूल देना, कार्य से घृणा करना, ऊब जाना आदि बातें अवस्थित आत्मा के जीवन में नहीं होती। अनवस्थित आत्मा ही इस प्रकार की शिकायतें करके कुड़कुड़ाता हुआ, दुःखित होता हुआ कार्य करता है । ऐसा करने से उसकी आत्मा को कोई यथेष्ट लाभ नहीं हो पाता। आत्मशक्तियां कण्ठित हो जाती हैं । आलस्य, प्रमाद, असावधानी और लापरवाही उसकी कार्यक्षमता को नष्ट कर देती हैं। फिर भला, उसकी आत्मा दुरात्मा होकर दुःखों की परम्परा न बढ़ायेगी तो क्या करेगी ? एक व्यावहारिक उदाहरण देकर मैं अपनी बात को स्पष्ट कर दूं एक छोटे बच्चे एडिसन को उसकी माँ वैज्ञानिक बनाने के विचार से एक बड़े वैज्ञानिक के पास ले गई और उससे प्रार्थना की-अपने बच्चे को पास रखने की। उस वैज्ञानिक ने बच्चे को अपने पास रख लिया और मकान में झाडू लगाने का काम सौंपा। बालक बड़ी तन्मयता के साथ मकान में झाडू लगाता, मकान के कोने, दीवारें, छतें, आलमारियां, फर्श आदि को वह खूब साफ रखता। वैज्ञानिक बालक एडिसन की कार्यकुशलता से बहुत प्रसन्न हुआ और यही बालक उस वैज्ञानिक की देखरेख में आगे चलकर महान् वैज्ञानिक बना। यदि बालक पहले ही यह सोच लेता कि यहां तो झाडू लगाने का काम है, यहां क्या सीखने को मिलेगा ? तो शायद ही वह अपने जीवन में महानता को प्राप्त करता, बल्कि वह साधारण लोगों की तरह ही अपना जीवन बिताता। यही बात आध्यात्मिक क्षेत्र में समझिये । जिस व्यक्ति की तन्मयता, रुचि और लगन साधना के छोटे से छोटे कार्य में नहीं होती, वह दूसरों की तरक्की को देखकर ईर्ष्या, घृणा और द्वष से भर जाता है, वैभव और विलासिता के स्वप्न देखने लगता है, और अन्त में, चित्त में अस्थिरता के कारण वह किसी भी साधना, किसी भी धर्मकार्य में जम नहीं पाता । वह अनवस्थित आत्मा अपने ही लिए दुःखपूर्ण कब्र खोद लेता है। जीवन का सच्चा आनन्द उसे नहीं मिल पाता । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy