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आनन्द प्रवचन : भाग ११
श्रावक या नीतिमान सद्गृहस्थ के सम्बन्ध में समझ लीजिए। ऐसे लक्ष्यभ्रष्ट व्यक्ति की आत्मा दुरात्मा बनकर अनेक दुःखों की परम्परा खड़ी कर देती है । जब आत्मा दुरात्मा बन जाती है, तब विषय, कषाय, दुराचरण, पापकर्म और सांसारिक सुख-भोग के वश होकर एक-एक योनि में अनन्त-अनन्त बार चक्कर लगाती है। ऐसी दुरात्मा दुःसह दुःख के गर्त में डाल देती है। इससे अधिक हानि पहुँचाने वाला दूसरा कौन है ? इस दुरात्मा ने आत्मा का जितना अहित किया है या करती है उतना अहित दुसरे किसी भी वैरी ने नहीं किया। इस दुरात्मा ने ही कषायादि दूसरे वैरी पैदा किये हैं। बस, अनवस्थितता मिटा दीजिए फिर आपकी आत्मा दुरात्मा न रहकर सदात्मा बन जाएगी।
___इसी प्रकार जो व्यक्ति परमात्मा का ध्यान करते समय मन को डांवाडोल करता है। इधर-उधर के विषय-बीहड़ों में इन्द्रियों को दौड़ाता है, वह अनवस्थित आत्मा है । उसकी आत्मा परमात्मा के ध्यान में स्थित नहीं है, वह अपने चित्त को बाहर भटकाता है, अपने भीतर नहीं झांकता; वह बाहर ही बाहर देखता है । ऐसी अनवस्थित दशा आत्मा को दुरात्मा बनाती है।
तीरपीठ (बंगाल) में द्वारका नदी के सुरम्य तट पर तारा देवी का मन्दिर है। उस दिन कोई मेला या विशेष पर्व था, इसलिए निकटवर्ती गाँव से एक जमींदार तारादेवी के दर्शनार्थ आया । दर्शन करने से पूर्व उसने सोचा कि स्नान करके यहीं पूजा-पाठ सम्पन्न कर लिया जाए । फलतः द्वारकातट पर अपना सामान रखकर वस्त्र उतारे और स्नान करने लगा। फिर एक आसन बिछाकर पूजा-पाठ के लिए पूर्वाभिमुख बैठकर ध्यान में प्रवृत्त हुआ। उसी समय एक संत भी स्नान के लिए आये। यह महात्मा बंगाल के असाधारण तांत्रिक वामाक्षेपा थे। उधर वे स्नान कर रहे थे, इधर जमींदार परमात्मा के ध्यान में निमग्न था । जो सन्त कुछ देर पहले प्रसन्नता अनुभव कर रहे थे, सहसा उन्हें न मालूम क्या कौतुक सूझा कि प्रभुध्यानमग्न जमीदार पर पानी के छींटे मारने लगे । जमींदार ने आँखें खोलीं; जिनमें गुस्सा स्पष्टतः झलक रहा था। सन्त वामाक्षेपा बालकों-सी मुद्रा बनाकर ऐसे खड़े हो गये, मानो उन्होंने जल के छींटे मारे ही न हों, या उन्हें पता तक न हो कि कुछ अनुचित छेड़छाड़ हो रही है। जमींदार ने दुबारा आँखें मूद ली और फिर ध्यानमग्न हो गया, इधर वामाक्षेपा फिर जल उलीचकर छींटे मारने लगे-निर्द्वन्द्व, निर्भय होकर।
जमींदार गर्जा-अरे ओ साधु ! अन्धा हो गया है ? दिखाई नहीं देता, मेरे पर पानी उलीच रहा है। मेरा ध्यान भंग हो गया। साधु होकर भी उपासना में विघ्न डालते हुए तुझे शर्म नहीं आती ?"
वामाक्षेपा मुस्करा दिये । बोले-"उपासना को कलंकित न करो, जमींदार साहब ! भगवान का ध्यान कर रहे हो या 'मूर एण्ड कम्पनी, कलकत्ता' की दूकान से जूते खरीद रहे हो ?"
यह सुनते ही जमींदार का उबलता हुआ क्रोध, जहाँ का तहाँ ऐसा बैठ गया,
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