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________________ अनवस्थित आत्मा ही दुरात्मा ६ अवस्थित आत्मा साधु, श्रावक या नीतिमान गृहस्थ आदि जिस दर्जे या भूमिका पर है, उस पर पूर्ण श्रद्धा एवं वफादारी के साथ उसका पालन करता है । वह मनोयोगपूर्वक अपनी भूमिका या श्रेणी अथवा कक्षा की साधना करता है, वह उसे बोझरूप नहीं मानता, इसलिए उसे अपने दर्जे की साधना करने में कहीं भी कष्ट या पीड़ा की अनुभूति नहीं होती, बल्कि उसे अपनी कक्षा के धर्म का पालन करने में सन्तोष और आनन्द का अनुभव होता है। अपने दर्जे का धर्म-पालन करते समय और करने के पश्चात् उसे आल्हाद का अनुभव होता है । जो साधु है, वह साधुधर्म के पालन में आने वाले कष्टों को भी आनन्द के रूप में पलट लेता है । इसी प्रकार श्रावक या नीतिमान गृहस्थ के विषय में भी समझ लेना चाहिए। ऐसे अवस्थित आत्मा के हृदय में भगवद्गीता का यह श्लोक अंकित हो जाता है श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात् । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥ दूसरे के द्वारा भली-भाँति अनुष्ठित पर-धर्म की अपेक्षा वर्तमान में विगुण प्रतीत होने वाला स्वधर्म श्रेयस्कर है। स्वधर्म में मृत्यु भी श्रेयस्कर है, क्योंकि परधर्म-चाहे कितना ही लुभावना लग रहा हो, भयावह है । तात्पर्य यह है कि साधु के लिए गृहस्थ परधर्म है; जबकि गृहस्थ के लिए वर्तमान में साधुधर्म पर धर्म है। जो साधक अपने धर्म में अवस्थित रहता है उसे अपने धर्म के अन्तर्गत यम नियमों का पालन करने में भार नहीं लगता, जबकि परधर्म की ओर मन को दौड़ाने वाले, चचलचित्त साधक स्वधर्म का तो ठीक से पालन कर ही नहीं पाते, परधर्म का पालन तो बहुत दूर की बात है। चाहे कोई साधु हो या श्रावक, ऊपर से साधु या श्रावक होने का दिखावा करना और भीतर पोल चलाना, अनवस्थित आत्मा की निशानी है, ऐसा व्यक्ति आत्मवंचना करता है और दूसरों को भी धोखे में रखता है। आचारांग सूत्र में साधु को अपने स्वधर्मपालन पर जोर देते हुए कहा है ___"जाए सद्धाए निक्खंतो तमेव अणुपालिआ..." -साधु जिस श्रद्धा से घर-बार छोड़कर साधुधर्म में दीक्षित हुआ है, उसका उसी श्रद्धा के साथ पालन करे। तात्पर्य यह है कि जो साधक (साधु या गृहस्थ) जिस लक्ष्य को सिद्ध करने के लिए उद्यत हुआ है, अगर वह उसका ठीक तरह से पालन नहीं करता है, तो स्थिति विषम हो जाती है । वह लक्ष्यभ्रष्ट हो जाता है और अपनी आत्मा को दुरात्मा बना लेता है । न वह घर का रहता है, न घाट का । जैसे कोई अपने महान् ध्येय को प्राप्त करने के लिए अनगार, अकिंचन भिक्ष बना, सांसारिक सुखों का परित्याग किया, यदि वह अपने इस ध्येय से च्युत होता है, उसकी पूर्ति के लिए उद्यत नहीं रहता, वह अनवस्थित आत्मा अपनी आत्मा को दुरात्मा बना लेता है। यही बात Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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