SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ मनोयोगपूर्वक नहीं; वह उसे कष्ट समझेगा। उसे अपने कार्य से संतोष और सुख नहीं मिलेगा, न प्रसन्नता ही। वह अच्छे से अच्छे कार्य का भी उत्तम फल प्राप्त नहीं कर सकेगा। ऐसे व्यक्ति की आत्मा अनवस्थित होती है, इसलिए वह जानबूझकर अपनी आत्मा को दुरात्मा बना डालता है । एक उदाहरण द्वारा इसे स्पष्ट करना उचित होगा एक नौकर है। वह काम पर आते ही छुटटी का समय गिनने लगता है। थोड़ी-थोड़ी देर बाद वह घड़ी देखता है, कि कब यहाँ से छुटकारा मिलेगा । उसका मन काम में नहीं लगता, जी ऊबता है। क्या इस तरीके से वह नौकर अपना काम अच्छा और पूरा कर सकेगा ? कदापि नहीं । इस नौकर के काम बहुत ही भद्दे, अधूरे और खराब होंगे क्योंकि उसने अपनी आधी शक्ति तो छुटटी की प्रतीक्षा में गवा दी । शेष आधी से तो आधा-अधूरा काम ही हो सकता है। जिसका चित्त छुटटी में अटका है, वह बेगार समझकर काम करेगा, काम को बोझ समझेगा। ऐसा व्यक्ति छुट्टी के समय भले ही प्रसन्न हो ले, शेष समय को कुड़कुड़ाते हुए आनन्दरहित व्यतीत करेगा। दूसरा नौकर इससे विपरीत स्वभाव का है । उसे अपना काम खेल की तरह मनोरंजक प्रतीत होता है, वह पूरी दिलचस्पी के साथ कलापूर्ण कार्य करता है। अपने काम में उसे आनन्द आता है । वह इतना तन्मय हो जाता है कि छुटटी के समय की ओर ध्यान ही नहीं देता। व्यावहारिक दृष्टि से पहला नौकर अनवस्थित आत्मा की कोटि का है, जबकि दसरा नौकर अवस्थित आत्मा की कोटि का। इसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में भी अव्यवस्थित ढंग से बेगार समझकर जैसी-तैसी जो ज्ञान-दर्शन-चारित्र की साधनाधार्मिक क्रिया करता है, वह अनवस्थित आत्मा की कोटि में है। वह अपनी साधना या क्रिया को भाररूप समझता है, उसे उसमें कोई दिलचस्पी नहीं होती, न उसके प्रति श्रद्धा और लगन ही होती है । ऐसी आत्मा अनवस्थित है, जो आगे चलकर दुरात्मा बन जाती है । अनवस्थित आत्मा निरुत्साह, निरानन्द, निराश-हताश हो जाता है । नीतिकार कहते हैं निरुत्साह, निरानन्दं निर्वीर्यमरिनन्दनम् । मा स्म सीमंतिनी काचिज्जनयत्पुत्रमीदृशम् ॥ --कोई भी नारी निरुत्साह, आनन्दशून्य, निर्वीर्य एवं शत्रु को खुश करने वाले पुत्र को जन्म न दे। इसके विपरीत जो साधक पूरी श्रद्धा, भक्ति, लगन, दिलचस्पी एवं तन्मयता के साथ ज्ञान-दर्शन-चारित्र की साधना करता है या क्रिया करता है उस साधना या क्रिया में उसे आनन्द प्राप्त होता है, वह हंसी-खुशी से साधना में ओतप्रोत हो जाता है । अतः उसे हम अवस्थित आत्मा कह सकते हैं, जो अपनी आत्मा को उच्च कोटि के विकास की ओर ले जाता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy