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________________ १५६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ से बचा सकता है । जहाँ शुद्ध विद्या होती है, वहाँ आत्मा को पाप आदि से बचाने का प्रयत्न अवश्य होता है । विद्या (ज्ञान) सम्यक हो तो आचरण में दृढ़ता आती है। ___ कई लोग आजकल कहते हैं—'ज्यादा जाणे सो ज्यादा ताणे' परन्तु मैं आपसे पूछता हूँ कि जो गलत बात की खींच-तान करता है, क्या उसका ज्ञान सही ज्ञान है ? यहाँ अधिक जानकारी और विद्वत्ता का अन्तर हमें समझ लेना चाहिए । विद्वान् व्यक्ति यदि हठाग्रही या दुराग्रही है, अपनी गलत बात को सत्य सिद्ध करने का प्रयास करता है, तो समझ लेना चाहिए, वह विद्यावान (ज्ञानी) नहीं है, सुविद्यावान किसी से व्यर्थ उलझता नहीं, और न ही गलत बात को गलत समझने पर भी पकड़े रहता है। अविद्यावान ही हठाग्रही या पूर्वाग्रही होता है । उसके साथ रहने वाला भी वैसा ही हठाग्रही, पूर्वाग्रही या जिद्दी बन जाता है । ____ हाँ, तो मैं कह रहा था, जो अविद्यावान हैं, वे चाहे कितने ही साक्षर हों, पण्डित हों, लेकिन यदि वे दम्भ-क्रिया करते हैं; गीतार्थ नहीं हैं: या पण्डित मानी हैं, पापकर्मों में आसक्त हैं, शरीर में तथा अपने वर्ण और रूप में आसक्त हैं, मन-वचनकाया से पराधीन हैं, वे सब अपने लिए नाना दुःखों के उत्पादक हैं । ____एक अगीतार्थ आचार्य थे, वे प्रतिदिन दोषयुक्त आहार ले आते थे; क्योंकि उनमें शरीरासक्ति ज्यादा थी, आत्मभाव कम था। उनके एक साधु सन्ध्या समय प्रतिक्रमण वेला में संविग्न साधु की तरह उसके लिए बहुत खेद करते, सभी पापों की आलोचना करते, अगीतार्थ गुरु भी उन्हें प्रतिदिन उसका प्रायश्चित्त देते थे । प्रायश्चित देते समय अगीतार्थ गुरु उस शिष्य की अत्यन्त प्रशंसा करते-देखो, यह साधु कितना त्यागी, वैरागी, धर्मश्रद्धालु एवं भाग्यवान है, दोषों की आलोचना करना बहुत दुष्कर है । अत: यह शुद्ध है। आचार्य का यह व्यवहार देखकर दूसरे साधु सोचने लगे-पाप-दोष लग जाये तो कोई बात नहीं, परन्तु अकृत्य करके उसकी आलोचना कर लेनी चाहिए, वही अच्छा मार्ग है । अत: उस संविग्न-सरीखे साधु की देखा-देखी सभी साधु अकृत्य करके उसकी आलोचना कर लेते । यों करते काफी समय बीत गया। एक बार एक गीतार्थ साधु वहाँ आये। वे अतिथि रूप में आये थे। जब उन्होंने अगीतार्थ आचार्य की गतिविधि देखी तो उन्हें अत्यन्त खेद हुआ। सोचने लगे-इन अगीतार्थ साधु ने सारे गच्छ का पतन कर दिया है। अवसर देखकर उक्त गीतार्थ साधु ने एक दिन बहुत विनयपूर्वक अगीतार्थ आचार्य से कहा-आप तो प्रतिदिन इन अकृत्यसेवी साधुओं की प्रशंसा करके अपनी आत्मा का तथा इन साधुओं का उसी तरह सत्यानाश कर रहे हैं, जिस तरह गिरिनगर के राजा आदि ने अग्नि-उपासक वणिक की प्रशंसा करके किया था। . अगीतार्थ आचार्य ने जिज्ञासापूर्वक पूछा-राजा आदि ने अग्नि-उपासक वणिक् की किस प्रकार प्रशंसा करके सत्यानाश कर दिया था ? For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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