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________________ अविद्यावान पुरुष : सदा असेव्य १८५ के एक चांटा लगाया और कान पकड़कर कहा-“अब तो अच्छी तरह याद हो गया न ?" युधिष्ठिर पीड़ा को सहन करते हुए बोले-"हाँ, गुरुदेव ! अब याद हो गया है।" क्षोभ भरे स्वर में आचार्य बोले- "मुझे नहीं मालूम था कि तुम पीटने पर ही पाठ याद करोगे, पहले नहीं।" अब युधिष्ठिर ने शान्ति और धैर्य से कहा-"गुरुदेव ! ऐसी बात नहीं है । आपने कहा था-मनुष्य को कभी क्रोध नहीं करना चाहिए। पहले दिन मुझे शंका थी कि आप प्रताड़ित करें और मुझे क्रोध आ जाये । अतः मैंने इन्कार किया कि मुझे अभी तक पाठ याद नहीं हुआ है । दूसरे दिन भी मुझे यह विश्वास नहीं था कि आप क्रोध करें, अप-शब्द कहें और मुझे गुस्सा न आये, और तीसरे दिन, इस सोपान को पार कर लेने पर भी मुझे शंका थी कि कहीं आप क्रोध करें, शारीरिक कष्ट दें, मार-पीट और मुझे क्रोध आ जाये । किन्तु आज जब मुझे क्रोध नहीं आया, तभी मैं कह सका कि मुझे पाठ याद हो गया है।" द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को छाती से लगा लिया और कहा-"वत्स ! सही अर्थों में तुमने ही विद्या के मर्म को जाना है। विद्या केवल स्मरण कर लेने मात्र से ही फलवती नहीं होती, अपितु व्यावहारिक जीवन में क्रियान्वित करने पर ही होती है।" उत्तराध्ययनसूत्र में केशीकुमार श्रमण के लिए कहा गया है-विज्जाचरणपारगा अर्थात् वे विद्या (ज्ञान) और चारित्र में पारंगत थे । थोथे ज्ञानी या बातें बघारने वाले ज्ञानी नहीं थे। विद्यावान वह, जो गीतार्थ हो साधुओं में विद्यावान उसे नहीं कहा जाता, जो व्याकरण, ज्योतिष, न्याय, भलंकार, छन्द या अनेक भाषाओं का ज्ञाता या विद्वान हो; परन्तु विद्यावान उसे कहा जाता है, जो गीतार्थ हो। जिसे आत्मविद्या एवं आत्मशुद्धि की प्रेरणा देने वाली विद्या का सक्रिय, अनुभूतिसहित अध्ययन हो, जैसे आचारांग, सूत्रकृताग, स्थानांग, समवायांग, भगवतीसूत्र आदि अध्यात्मविद्याविषयक शास्त्र हैं; दशाश्रु तस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहारसूत्र और निशीथसूत्र आदि चार छेदसूत्र आत्मशुद्धिविषयक शास्त्र हैं। इनका जो स-रहस्य ज्ञाता हो, वह गीतार्थ कहलाता है और जो गीतार्थ होता है, वही सच्चे माने में विद्यावान है। अविद्यावान की सेवा में न रहें जैनशास्त्रों में बताया गया है कि साधु को गीतार्थ के निश्राय में विचरण करना चाहिए, अगीतार्थ के निश्राय में नहीं; क्योंकि अगीतार्थ अविद्यावान होता है, बह पाप-दोषों से अपनी आत्मा को बचा नहीं सकता और न ही दूसरों को पाप-दोषों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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