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अविद्यावान पुरुष : सदा असेव्य
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गीतार्थ साधु बोले-गिरिनगर का कोटीश्वर वणिक अग्नि-उपासक था। वह प्रतिवर्ष एक कमरा रत्नों से भर कर उसमें आग लगा देता था। उसकी यह चर्या देखकर अविवेकी एवं अदूरदर्शी राजा तथा सभी नागरिक उसकी बहुत तारीफ करने लगे कि यह सेठ अग्निदेव का कितना भक्त है कि प्रतिवर्ष रत्नों से पूर्ण कमरे में आग लगा कर जला देता है। इस अदूरदर्शी प्रशंसा का यह फल हुबा कि एक वर्ष जैसे ही उस कोटिध्वज ने रत्न-परिपूर्ण कमरे में आग लगाई, प्रचण्ड हवा के कारण आग की लपटें दूर-दूर तक चली गई, जिससे राजा के महल तथा सभी खास-खास मकान जलकर खाक हो गये। तब राजा एवं नागरिकों ने विचार किया कि इसे हमने पहले ही निषेध किया होता तो आज इतना नुकसान न होता । हमने इसकी व्यर्थ ही प्रशंसा की, जिसका नतीजा हमें भोगना पड़ा। यों सोचकर राजा ने उस बनिये को नगर से निकाल दिया।
इसी प्रकार आचार्यश्री जी ! आप भी अकृत्यसेवी साधुभों की केवल थोथी आलोचना विधि देखकर प्रशंसा करते हैं। फलतः आप न तो अपनी आत्मशुद्धि कर पाते हैं, न इनकी ही ! स्व-पर का अकल्याण ही करते हैं । अतः आप मथुरा नगरी के सतर्क राजा एवं नागरिकों की तरह अनर्थभागी न हो, सावधान हो जाएं, ऐसी मेरी नम्र प्रार्थना है आपसे । - मथुरा नगरी में भी एक अग्नि-उपासक बनिया था। वह भी रत्नों से कमरा भरकर उसमें आग लगाने लगा। दूरदर्शी राजा एवं नागरिकों ने उसका यह कृत्य देखकर तुरन्त उसे रोका, उसके इस गलत कार्य की भर्त्सना की और दण्डित भी किया। सब कहने लगे-आग लगाना हो तो जंगल में घर बनाकर उसमें लगाओ, यहाँ नहीं। यों कहकर उसे नगर से निकाल दिया। इसी प्रकार आचार्यश्री ! आप भी अभी से इन साधुओं को अकृत्य करने से रोकेंगे तो अपनी आत्मा एवं गच्छ को महान् अनर्थ से बचा लेंगे। इस प्रकार युक्तिपूर्वक निवेदन करने पर भी अगीतार्थता के कारण हठाग्रही आचार्य ने अपना कदाग्रह नहीं छोड़ा, उसी प्रकार वे प्रवृत्ति करते रहे । अतिथि गीतार्थ साधु ने फिर उन अगीतार्थनिश्रित साधुओं से कहा-"ऐसे अविद्याग्रस्त गुरु की सेवा में रहने से आप लोगों का कल्याण कैसे होगा ? अतः इन्हें छोड़ो, अन्यथा ये तुम्हें पतन की ओर ले जायेंगे।" सभी साधुओं ने गीतार्थ साधु की बात पर गम्भीरता से विचार करके उन अगीतार्थ आचार्य का त्याग कर दिया।
बन्धुओ! इसी प्रकार किसी भी अविद्याग्रस्त व्यक्ति की सेवा या संगति नहीं करनी चाहिए अन्यथा वह गलत मार्ग पर चढ़ा देगा, स्वयं भी पाप में डूबेगा, सेवक को भी डुबायेगा । अविद्यावान धर्माधर्म का विवेक नहीं कर सकता, इस कारण अपने अनुगामियों या सेवकों को भी उलटे मार्ग पर प्रेरित कर सकता है। स्वयं देहाध्यासी होगा तो दूसरों को भी देहासक्ति से ऊपर उठने की प्रेरणा नहीं दे सकेगा । इसीलिए महर्षि गौतम ने अमूल्य नैतिक प्रेरणा दी है
न सेवियन्वा पुरिसा अविज्जा।
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