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७१. अतिमानी और अतिहीन असेव्य
प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज मैं आपके समक्ष एक ऐसे असंतुलित जीवन की व्याख्या प्रस्तुत करना चाहता हूँ, जो या तो अत्यन्त अहंकारी होता है, या फिर अत्यन्त हीनता का अनुभव करता है। इन दोनों अतियों के शिकार बने हुए लोगों की छाया से दूर रहने का संकेत महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र में किया है। गौतमकुलक का यह ५७वां जीवनसूत्र है । वह इस प्रकार है
न सेवियव्वा अइमाणी-हीणा -अतिमानी और अत्यन्त हीन पुरुषों का संग या सेवन नहीं करना चाहिए। अथवा अभिमानी और नीच पुरुषों की सेवा नहीं करनी चाहिए।
इस जीवनसूत्र में दो अर्थ गभित हैं-(१) अतिमानी और अतिहीन पुरुष असेव्य हैं, (२) अभिमानी और नीच पुरुष असेव्य हैं।
आइये, इन दोनों अर्थों के प्रकाश में हम इस जीवनसूत्र पर चिन्तन कर लेंन अतिमानी अच्छा, न अतिहीन अच्छा
अत्यधिक अहंकारी व्यक्ति का जीवन भी निर्दोष और शुद्ध नहीं होता, उसमें भी अहंकार के साथ क्षुद्रता, ईर्ष्या, कुढ़न, असंतोष, द्वेष, झूठ, फरेब, झूठी महत्त्वाकांक्षा आदि दुगुण और दोष आजाते हैं। साथ ही अतिहीन जीवन भी निर्दोष और विशुद्ध नहीं होता, उसमें हीनभावना के साथ-साथ दब्बूपन, निरुत्साहता, अप्रसन्नता, मायूसी, प्रतिकारहीनता, साहस का अभाव आदि दुगुण आ जाया करते हैं। इसलिए दोनों की अति जिसमें हो, उसका संसर्ग या सेवन यहाँ वजित बताया गया है ।
अतिमानी का संग इसलिए भी वर्जित बताया गया है कि उसके संग से व्यक्ति में अहं की मात्रा बढ़ जाती है और वह अहंकार से फुटबाल की तरह फूल जाता है । इसी प्रकार अतिहीन व्यक्ति स्वयं हीनभावना का शिकार होता है, इसलिए उसकी छाया में रहने वाले व्यक्तियों में अकर्मण्यता, मायूसी, उदासी, किंकर्तव्यविमूढ़ता आदि दुगुण प्रविष्ट हो जाते हैं।
एक रोचक संवाद इस सम्बन्ध में सुन्दर प्रकाश डालता है
पहाड़ी के एक मोड़ से गुजरती एक व्यस्त सड़क के किनारे पड़ी एक भीमकाय चट्टान ने अपने पास में ही पड़ी सुस्त और हीनभावना ग्रस्त एक छोटी चट्टान से
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