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________________ वन्दनीय हैं वे, जो साधु २६६ नागरिक का अपमान असह्य है । किसी को सुधारना और यथार्थ पथ-प्रदर्शन करना तो ठीक है, पर अपशब्द और अपमान तो किसी का भी नहीं होना चाहिये ।” महामन्त्री और आचार्य दशमेघ ने समझाया-"महाराज ! जिस तरह माताएं बच्चों की छोटीछोटी भूलें क्षमा कर देती हैं, उसी प्रकार कैवर्तराज तोमराज की भूल भी साधारण है । नागरिक अनंगपाल के पास वहाँ की स्वर्णमुद्राएँ न होती तो उसे अपमानित न किया गया होता।" परन्तु विश्वजित् ने एक न सुनी। उसी दिन सेना सजाकर कैवर्तराज पर चढ़ाई कर दी गई। __ कई दिन के युद्ध के बाद भी कैवर्त को जीता न जा सका। युद्ध की अवधि बढ़ती गई। तभी एक दिन एक विचित्र घटना घटी। कैवर्तराज्य के प्रकाण्ड पण्डित देवलाश्व विश्वजित् के सैनिक खेमों के पास से गुजरे। सैनिकों ने उन्हें गुप्तचर समझकर बंदी बना लिया और सम्राट विश्वजित् के समक्ष उपस्थित किया । विश्वजित् ने उन्हें प्राणदण्ड की सजा सुना दी। तेज अन्धड़ की तरह यह खबर सारे कैवर्तदेश में फैल गई कि संत देवलाश्व बन्दी बना लिये गये हैं, उन्हें शीघ्र ही मृत्युदण्ड दिया जाने वाला है। विश्वजित् के आक्रमण से प्रजा को इतना कष्ट नहीं हुआ था, जितना देवलाश्व को बंदी बना लिये जाने से हो गया। कैवर्तनिवासियों ने अपने प्रिय संत के लिये अन्न-जल का त्याग कर दिया। सारे राज्य में शोक छा गया। रात्रि के चौथे पहर में, जबकि विश्वजित् की सेनाएं युद्ध की तैयारी कर रही थीं, एक आकृति वहाँ पहुँची और निवेदन किया- 'मैं कैवर्त का राजदूत हूँ, मुझे सम्राट विश्वजित् के पास कैवर्तसम्राट तोमराज का सन्देश पहुँचाना है।" इस पर आगन्तुक नरेश विश्वजित् के पास पहुँचा दिया गया। विश्वजित ने अपनी मूछों पर ताव देते हुए स्वाभिमानपूर्वक प्रश्न किया"कहो क्या सन्देश लाये हो तोमराज का ? क्या उन्होंने पराजय स्वीकार कर ली ?" आगन्तुक-"नहीं, महाराज ! कैवर्तनरेश इतने भीरु नहीं, जो युद्ध सम्पन्न हुए बिना पराजय स्वीकार कर लें। परन्तु यदि आप बंदी संत देवलाश्व को मुक्त कर दें तो वे उनके बदले आपको दो करोड़ स्वर्णमुद्राएं भेंट कर सकते हैं।" "बस , गुप्तचर का मूल्य कुल दो करोड़ रुपये । बोलो, दूत ! तुम्हें इस बंदी से इतना मोह क्यों है ?” विश्वजित् ने वीरभाव से प्रश्न किया। आगन्तुक-"महाराज ! यह गुप्तचर नहीं, यथार्थ में एक बड़े संत हैं। संत राष्ट्र की आत्मा होती है । वह न रहे तो कैवर्तराज्य अनाथ हो जायेगा; पथभ्रष्ट हो जायेगा। हम स्वदेश को पथभ्रष्ट होने से बचाने के लिये दो करोड़ स्वर्णमुद्राएँ तो क्या, सम्पूर्ण राज्य आपको भेंट कर सकते हैं।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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