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________________ २६८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ है, वह अहिंसक होता है । अहिंसक की यह विशेषता होती है कि दूसरों के वह दुःख को समझ सकता है । उसका कोई शत्रु नहीं होता, वह सबको अपना मित्र और बन्धु मानता है । अहिंसक ही सच्ची शान्ति पैदा कर सकता है, दूसरों को शान्ति दे सकता है । एक गुजराती कवि ने ठीक ही कहा है शान्ति पमाडे तेने संत कहीए । हाँ, रे तेना दासना दास थईने रहीए । सच्चा साधु समाज से कम से कम लेकर अधिक से अधिक देता है । जो भी लेता है, वह भी उपकृत भाव से। समाज कल्याण के लिये वह प्रतिक्षण उद्यत रहता है। जो समाज से अधिक से अधिक अच्छे पदार्थ अपने उपभोग के लिये लेता है, लेकिन देने के नाम पर समाज से किनाराकसी करता है, कहने लगता है—साधु को समाज से क्या वास्ता? वह साधु न तो स्व-कल्याण ही साधता है, और न पर-कल्याण । वह कल्याण-साधना के नाम पर स्वार्थ-साधना करता है। सच्चा साधु समाजहित के किसी भी कार्य से जी नहीं चुराता। वह जहाँ प्रेरणा देना होता है, वहाँ समाज को प्रेरणा करता है, जहाँ मार्गदर्शन, परामर्श, उपदेश या आदेश देना होता है, वहाँ वैसा करता है । वह मानव-जीवन के सभी क्षेत्रों में मार्गदर्शन, प्रेरणा या उपदेश देता है। साधु : राष्ट्र का प्राण, राष्ट्ररत्न ऐसा साधु समाज और राष्ट्र का रत्न और प्राण होता है। _ एक पाश्चात्य विचारक एम० हेनरी (M. Henry) ने कहा है The saints are God's jewels, highly esteemed by and dear to him. -संत परमात्मा के रत्न हैं, जो उच्च प्रकार से मूल्यांकित हैं और उस प्रभू को प्रिय हैं। ___ जो राष्ट्र उपर्युक्त गुणसम्पन्न साधु को वन्दनीय न मान सिर्फ भारभूत, अकर्मण्य और आलसी मानते हैं, वे अपने राष्ट्र और समाज को अन्धकूप में डालते हैं। ऐसे राष्ट्र या समाज का अधःपतन होते देर नहीं लगती। इसका कारण है कि संतों द्वारा आवश्यक मार्गदर्शन नहीं मिलता, जहाँ संतों द्वारा निवारण या निवारणों के उपाय या सुझाव नहीं प्राप्त होते । ऐसी स्थिति में समाज स्वच्छन्द, विलासी, अतिभोगी एवं निरंकुश बन जाता है, संयम के तंग ढीले पड़ जाते हैं; तब पतन होने क्या देर लगती है। जो इस बात को समझते हैं, वे संत को राष्ट्र की आत्मा मानकर उसे हर सम्भव प्रयास से अपने राष्ट्र में रखते हैं, उसका आदर-सत्कार करते हैं । एक उदाहरण द्वारा मैं अपनी बात स्पष्ट कर दूं सम्राट विश्वजित् ने आदेश दिया-"जाओ, युद्ध की तैयारी करो । एक भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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