________________
बन्दनीय हैं वे, जो साधु
२६७
महाराष्ट्र के संत समर्थ रामदास ने बताया है कि “साधु का मुख्य लक्षण यह है कि वह सदा अपने स्वरूप का अनुसन्धान करता रहता है । सब लोगों में रहकर भी वह उनसे अलग रहता है । ज्यों ही उसकी दृष्टि स्वरूप पर पड़ती है, त्यों ही उसकी सांसारिक चिन्तायें नष्ट हो जाती हैं और अध्यात्म-निरूपण के प्रति लगन लग जाती है ।""उनके मन में और बाहर भी अचल समाधान रहता है। अन्तःकरण की स्थिति अचल हो जाने पर फिर चंचलता कहाँ से आ सकती है ? जब वृत्ति सत्स्वरूप में लग जाती है, तब वह भी सत्स्वरूप हो जाती है। साधुओं की (आत्मिक) सम्पत्ति अक्षय होती है, जो उनके पास से कभी नहीं जा सकती। इसलिए वे क्रोध, लोभ आदि से रहित हो जाते हैं। जहाँ कोई दूसरा पराया है ही नहीं, वहाँ वह किस पर क्रोध करेगा? जो स्वयं अपने आनन्द में मग्न रहता है, वह किस पर मद करेगा ? इसलिए वाद-विवाद का भी वहाँ अन्त हो जाता है । साधु स्वभाव से ही निर्विकार होता है, फिर उसके समक्ष तिरस्कार क्या चीज है ? जब सभी अपने ठहरे तो मत्सर किस पर किया जाये ? इस तरह मद-मत्सर के पिशाच साधुओं के पास फटक नहीं सकते। साधु स्वयम्भू स्वरूप होता है, फिर उसमें दम्भ कैसे हो सकता है ? परब्रह्म निर्भय है और साधु भी ब्रह्मस्वरूप होता है, इसीलिए वह भयातीत, निर्भय और शान्त होता है।" संस्कृत के एक कवि ने कहा है
शैले शैले न माणिक्य, मौक्तिकं न गजे गजे ।
साधवो नहि सवन, चन्दनं न वने वने ॥ प्रत्येक पर्वत पर माणिक्य नहीं मिलता, प्रत्येक हाथी के मस्तक में मोती नहीं होता, प्रत्येक वन में चन्दन नहीं पाया जाता, इसी प्रकार साधु सर्वत्र नहीं मिलते।
सच्चे साधु स्वयं कष्ट सहकर भी, अपने आपको कष्ट और अपमान में डालकर भी जगत् को तारने और कल्याण करने के लिए चल पड़ते हैं ।
___ साधुओं में इतनी आत्मशक्ति होती है कि वे बड़ी से बड़ी विपत्ति और मार को समभाव से सह लेते हैं।
प्राचीन काल की घटना है। एक वृद्ध साधु को किसी झूठे इलजाम में पकड़ कर कोड़े लगाये जा रहे थे; लेकिन वे साधु शान्त और उन्नतभाव से उसे सहन किये जा रहे थे । एक सज्जन ने यह दृश्य देखा। पास जाकर पूछा-"महात्मन् ! आप तो इतने वृद्ध और दुर्बल हैं फिर भी ऐसी सख्त मार को शान्तभाव से कैसे सहन कर लेते हैं ?"
साधु ने कहा-भाई ! विपत्ति आत्मशक्ति से सही जाती है, शारीरिक शक्ति से नहीं।"
सच्चा और वन्दनीय साधु वह है जो शान्त होता है । शान्ति इसलिए होती
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org