SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 361
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४० आनन्द प्रवचन : भाग ११ दरिद्र नहीं होता, उसके पास पेट भरने और अपना गुजारा चलाने लायक धन और पर्याप्त साधन होते हैं, फिर भी अपनी अपेक्षा दूसरों के पास अधिक धन और साधन–बंगला, कार, कोठी, फर्नीचर धन की प्रचुरता आदि-देख-देखकर मन ही मन ईर्ष्या करता है, अपने को उनकी अपेक्षा निधन या दरिद्र समझने लगता है । सोचता है-'मैं तो उसके सामने कुछ नहीं हूँ।' इस प्रकार वह अपने आपको मन से दरिद्र समझकर कष्ट का अनुभव करता है, तथा मन ही मन अधिक धनवान् बनने की योजना बनाता है । ऐसे लोग, चाहे कितना ही धन हो जाये, मन से सदा असन्तुष्ट ही रहते हैं और अपने आपको दरिद्र की कोटि में मानते हैं । शंकराचार्य-प्रश्नोत्तरी में ठीक ही कहा है को वा दरिद्रो हि ? विशालतृष्णः । 'दरिद्र कौन है ? जिसकी तृष्णा विशाल है।' एक राजा था। उसने अपने सेवकों को आदेश दिया कि मेरे राज्य में जो सबसे अधिक दरिद्र हो—निर्धन हो-उसे यह स्वर्णमुद्राओं की थैली भेंट कर आओ। सेवक पहुँचे गाँव में । गाँव सारा छान डाला पर कहीं भी कोई दरिद्र या निर्धन नहीं मिला। जिन साधु-संन्यासियों को उन्होंने अकिंचन देखा, उनके पास जाकर प्रार्थना की—“स्वामिन् ! आप हमें निर्धन एवं अकिंचन लगते हैं। अतः हमारे राजा द्वारा दी हुई यह स्वर्णमुद्राओं की थैली लीजिये।" साधु-संन्यासियों ने पूछा-"तुम्हारे राजा ने यह धन किसको देने को कहा है ?"वे बोले-“राजा ने कहा है कि जो सबसे अधिक दरिद्र या निर्धन हो, उसे दे आओ।" साधु-संन्यासियों ने कहा-"हम दरिद्र या निर्धन नहीं हैं, दरिद्र या निर्धन तुम्हारा राजा है, उसे ही यह थैली वापस ले जाकर दे दो।" राजसेवकों ने पूछा- “महात्मन् ! राजा कैसे दरिद्र हैं ?" उन्होंने कहा-"राजा दरिद्र इसलिए है कि उसकी तृष्णा विशाल है। इतना सब वैभव होते हुए भी उसे नये-नये देश जीतने, उनका खजाना आपने कब्जे में करने की लालसा है।" __राजसेवक मोहरों की थैली लेकर राजा के पास लौटे और सारा हाल कह सुनाया। वास्तव में जिसकी तृष्णा विशाल होती है, वही मन का दरिद्र होता है। दारिद्र य का कारणमूलक चित्रण करते हुए 'तिलोक काव्य संग्रह' में कहा हैऋद्धिहीन वो ही जाके तृष्णा अधिक मन, रीस परचण्ड वेग लोकन से लरते । संतजन देखकर श्वान जैसे रोष करे, क्रू रदृष्टि निष्ट वेण मन से उचरते ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy