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मृत और दरिद्र को समान मानो ३४१ देत नहीं दान कछ, करे अभिमान मूढ़,
आरत रुदर ध्यान, धरम न करते । कहत 'तिलोक' धिधिक वांको बारंबार,
धिक् वांकी मात को सो जाया ऐसा नर ते ॥' कई व्यक्ति धन के दरिद्र होते हैं, पर वे मन के दरिद्र नहीं होते। वे अपने जीवन में दरिद्रता को महसूस नहीं करते, और परिस्थिति के अनुसार अपने को एडजस्ट कर लेते हैं, वे दरिद्र नहीं हैं। पहले दरिद्र वे हैं, जो धन और तन के दरिद्र न होते हुए भी मन से दरिद्रता महसूस करते हों, दूसरे दरिद्र वे हैं, जो धन से दरिद्र हों, साथ ही मन से भी दरिद्रता का अनुभव करते हों; तीसरे वे हैं, जो तन से दरिद्र हों, धन से नहीं, पर मन से दरिद्रता महसूस करते हों। चौथे वे दरिद्र हैं, जो तन, मन, और धन तीनों से दरिद्रता का अनुभव करते हों।
वास्तव में ऐसे कर्मवीर जो धन अथवा तन से दरिद्र होते हुए भी मन से दरिद्रता का अनुभव न करते हों, वे दरिद्र ही नहीं हैं। इतिहास में ऐसे अनेक ज्ञात-अज्ञात उदाहरण मौजूद हैं कि जिनके घर में बेहद गरीबी थी, परन्तु अपने आत्म-विश्वास और प्रबल उत्साह के साथ उन्होंने पुरुषार्थ किया और वे सफल हुए।
फ्रांस में २७ दिसम्बर १८२२ को एक मजदूर परिवार के घर एक बच्चे का जन्म हुआ। बालक का नाम रखा 'लुई' । इसका गरीब परिवार चमड़े की चीजें बनाने का काम करता था । चमड़े के सूटकेस, पर्स, छोटे बक्स आदि बनाता तथा मरम्मत करता था। इस छोटे-से काम में चारों ओर प्रायः गरीबी, अभाव और मजबूरी का वातावरण था । लुई मोची का पुत्र था। जिस बच्चे को दो टाइम भरपेट भोजन उपलब्ध नहीं, जाड़े से बचने के लिए पर्याप्त वस्त्र नहीं, उसके पढ़ने-लिखने की आशा करना आकाश-कुसुम को पाने की इच्छा के समान दुराशा थी। घर का वातावरण पढ़ने-लिखने में तनिक भी रुचि उत्पन्न करने वाला न था।
परन्तु मोची अपने पुत्र लुई से कहता रहता-“लुई ! मैं जब और पढ़े-लिखे लोगों के लड़कों को देखता हूँ तो मेरी भी इच्छा होती है कि तुम भी पढ़ालिखकर अच्छे विद्वान् बनो, दुनिया में नाम कमाओ।"
लुई कहता-"पिताजी ! आप ही तो कहते हैं कि तू मेरे काम में हाथ बंटा। सारे दिन मेरे हाथ में चमड़ा काटने की रापी, डोरा आदि रहते हैं, फिर इन हाथों में किताब और कलम कहाँ से रहे ?"
___ मोची कहता-"यह मेरी मजबूरी और खुदगर्जी है । लुई ! मेरी गलती है। मैं गरीबी और अभाव में समय काट लूंगा । एक समय भूखा रहकर जिंदगी पूरी कर लूंगा, पर तुम तो कम से कम ऊँचे उठो, विद्वान् बनो, नाम कमाओ।"
१. तिलोक काव्य संग्रह, द्वितीय बावनी, गा० १३, पृ० १८
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