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________________ १७६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ -जब विपत्तियां आ पड़ती हैं, तब साधक-बाधक कारणों का विवेक करना ही पाण्डित्य है। जो विवेक नहीं करना जानते, उनके मार्ग में पद-पद पर विपत्तियां आती हैं। विद्यावान् विद्या के साथ-साथ विनयवान होता है विनय से पात्रता आती है, पात्रता से मनुष्य धन प्राप्त करता है । धनसम्पन्न व्यक्ति विनयी होता है तो धर्माचरण करता है और धर्माचरण से सुख प्राप्त करता है। इसके विपरीत अविद्यावान या विद्याविहीन व्यक्ति हिताहित या कार्य-अकार्य का विवेक नहीं कर सकता, न ही हेयोपादेय को जान पाता है, वह दुःखोत्पादक सांसारिक विषय-भोगों को सुखकारक मानता है, परन्तु उन्हीं विषय-भोगों का गुलाम बनकर वह जिंदगीभर दुःख पाता है, उनकी प्राप्ति के लिए दुःख उठाता है, बेचैन होता है, तड़फता है, प्राप्त होने पर उसकी रक्षा के लिए चिन्तित रहता है। यदि बीच में ही अभीष्ट वस्तु या विषय का वियोग हो गया तो भी वह दुःखित होता है । इस प्रकार अविद्यावान् पुरुष पद-पद पर अपने अज्ञान के कारण दुःखी होता रहता है । इसीलिए भगवान् महावीर ने पावापुरी के अपने अन्तिम प्रवचन में फरमाया है जावंतऽविज्जा पुरिसा सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुपंति बहुसो मूढा संसारम्मि अणंतए ॥' -जितने भी अविद्यावान पुरुष हैं, वे सब अपने लिए दुःख उत्पन्न करते हैं । वे मूढ़ अनेक बार नष्ट होते हैं, जीवन हार जाते हैं और अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हैं। अविद्यावान् पुरुष हेय-उपादेय, हित-अहित, कर्तव्य-अकर्तव्य के विवेक से विकल होने के कारण हर वस्तु को प्रायः विपरीत रूप में ग्रहण करके दुःख पाता है । इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग में वह सहनशीलता नहीं रख पाता। इस कारण वह दुखी होता है। . बौद्ध जातक की एक कथा इस सम्बन्ध में मुझे याद आ रही है... श्रावस्ती में एक वणिक रहता था, उसके एक रूपवती कन्या थी, नाम था'पटटाचारा' । पट्टाचारा जब सयानी हुई तो माता-पिता उसके विवाह के लिए चिन्तित हुए किन्तु पट्टाचारा यौवन के क्षणिक उन्माद के प्रवाह में बहना सुखकारक समझकर भावी के सुनहले स्वप्न संजोने लगी । स्वास्थ्य और सौन्दर्य के आकर्षण में पड़कर पट्टाचारा एक पड़ोसी युवक से प्रेम करने लगी। उसने अपना विवाह उसी से करने को कहा तो पिता ने समझाया-"बेटी यौवन और सौन्दर्य के आकर्षण को प्रेम नहीं कहते । प्रेम तो कर्तव्यपालन, त्याग वैराग्य, और सेवा की साधना है । १. उत्तराध्ययनसूत्र, अ० ६, गा० १ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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