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अविद्यावान पुरुष : सदा असेव्य
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'अमीरिख' चित्त सुविचारी या उच्चारी बात,
पूरी वह विद्या नहीं आवे इन प्राणी को॥ अविद्यावान व्यक्ति हर वस्तु का स्वरूप विपरीत रूप से देखता है। चाणक्य नीति में विद्याहीन व्यक्ति की निन्दा करते हुए कहा है
धर्माधमौ न जानाति लोकोऽयं विद्यया विना। तस्मात् सदैव धर्मात्मा विद्यावान् परो भवेत् ॥ शुनःपुच्छमिव व्यर्थ जीवितं विद्यया विना। न गुह्यगोपने शक्तं न च वंशनिवारणे ॥ वस्त्रहीनमलंकारं, घृतहीनं च भोजनम् ।
स्तनहीना च या नारी विद्याहीनं च जीवनम् ॥' _ विद्या के बिना संसार धर्माधर्म का ज्ञान नहीं कर सकता। इसलिए धर्मात्मा को सदैव उत्कृष्ट विद्यावान होना चाहिए।
विद्या के बिना जीवन कुत्ते की पूंछ की तरह व्यर्थ है, जो न तो अपने गुप्तांगों को ढकने में काम आती है, और न ही दंश-मच्छर आदि से निवारण में काम आती है।
जैसे वस्त्रहीन अलंकार, घृतरहित भोजन एवं स्तनहीन नारी शोभा नहीं देती, वैसे ही विद्याहीन जीवन शोभनीय नहीं होता।
कोई व्यक्ति कितने ही रूप और यौवन से सम्पन्न हो, विशाल कुलोत्पन्न हो फिर भी विद्याहीन हो तो गन्धरहित टेसू के फूल की तरह शोभा नहीं देता।
जो व्यक्ति न तो लौकिक विद्या ही पढ़ा है और न लोकोत्तर विद्या से सम्पन्न है, वह लोक-परलोक में किसी भी तरह से सफल नहीं हो सकता; न ही वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल हो पाता है।
अविद्यावान और विद्यावान में अन्तर विद्यावान मनुष्य कैसी भी परिस्थिति हो, दुःख नहीं पाता, न ही वह किसी भी विकट परिस्थिति में घबड़ाता है । वह विद्या के बल से युग की नब्ज परख लेता है, युग की माँग को जानता है, किस कृत्य में धर्म है, किसमें अधर्म है ? कौन-सा कार्य हेय है, कौन-सा उपादेय है और कौन-सा ज्ञ य है ? इस बात को बिद्यावान बहुत शीघ्र जान लेता है । जीवन के उतार-चढ़ाव के समय विद्यावान मनुष्य सारी परिस्थिति को पहले से ही भांप लेता है । नीतिकार कहते हैं
परिच्छेदो हि पाण्डित्यं यदाऽपन्ना विपत्तयः। अपरिच्छेदकर्तृणां विपदः स्युः पदे-पदे ॥
१. चाणक्य नीति
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