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मूर्ख और तियंच को समान मानो
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करिये।" वह चुपचाप संकोचपूर्वक भोजन करने लगा। थाल की भोजन सामग्री समाप्त भी नहीं हुई थी कि पुनः मनुहार के साथ भोजन परोसा जाने लगा। कृषक-पुत्र झुंझलाकर बोला-"कहीं मेरे साथ ठगाई तो नहीं की जा रही है ? आप मनुहार तो कर रहे हैं, लेकिन सोच लेना, मेरे पास ढब्बु पैसा ही है।" साले ने मजाक के स्वर में कहा-“यह तो मुझे मालूम है। यह सब ढब्बु पैसे में ही तो हो रहा है।" कृषक-पुत्र बोला-"तब तो आपके यहाँ पूरा सुकाल है।" घर के भीतर से भी हंसी की धीमी गूंज आ रही थी।
भोजन करने के बाद वह साले को ढब्बु पैसा देने लगा तो उसने कहा-"अभी आप रहने दीजिये । अभी थोड़ा आराम कर लीजिये ।" एकान्त हवादार स्थान में उसकी शय्या बिछा दी गई । शय्या देखकर कृषक-पुत्र बोला-'अच्छा ! यहाँ ढब्बु पैसे में आराम की भी व्यवस्था है ?" साला हंसी को पीते हुए बोला-"जी हाँ !"
और चल दिया । कृषक-पुत्र आँखें मूंदकर सोया ही था कि किसी ने उसके पैर पर हाथ की हलकी-सी चांप दी । बात यह थी कि उसकी पत्नी को अपने पति की ढब्बु पैसे की रट अच्छी नहीं लग रही थी। बच्चे भी उसे चिढ़ा रहे थे—'बुआ ! ढब्बू पैसे वाले फूफाजी आए, जीजी ! ढब्बु पैसे वाले जीजाजी आये।' इससे वह मन ही मन घबराकर एकान्त देख अपने पति को चेताने आई थी। कृषक-पुत्र ने चांप का अनुभव किया तो आँखें खोलीं, अपने सामने एक षोड़शी को खड़ी देख उसने पूछा- "तुम कौन हो ? यहाँ क्यों आई हो ? देखो, मेरे पास ढब्बु पैसे से ज्यादा कुछ भी नहीं है।" उसकी पत्नी हंसी और चिढ़कर बोली-"मैं भी ढब्बु पैसे में आ रही हूँ। अब कितनी बार ढब्बु पैसे की बात को दोहराओगे ? कुछ अक्ल से काम लो। क्या इतना सब स्वागत ढब्बु पैसे में ही हो रहा है ? यह आपकी ससुराल है। मैं आपकी पत्नी हूँ। ढब्बु पैसे की आपकी रट से अब तो जिंदगीभर आपके सिर पर ढब्बु पैसे की छाप लग गई है । मैं तो लज्जित हो गई हूँ, यह सुन-सुनकर।"
कृषक-पुत्र भौंचक्का-सा रह गया । वह बोला-"अच्छा, यह मेरी ससुराल है ? मुझे क्या मालूम ?"
स्त्री बोली-“आपको तभी मालूम हो जाना चाहिये था, मेरा इतना स्वागत किया जा रहा है तो कोई कारण है ? दूसरी जगह तो आपका किसी ने इतना स्वागत नहीं किया।" कृषक-पुत्र लज्जित हो गया। शीघ्र ही वह सबसे मिलकर विदा हो गया।
मेरे कहने का मतलब यह है, ढब्बु पैसे वाले कृषक-पुत्र की तरह बहुत-से मनुष्य किसी बात को कसकर पकड़ लेने के कारण मूर्ख एवं हँसी के पात्र बनते हैं । इसलिये जैसे पशु अपनी अक्ल अधिक नहीं दौड़ा सकते, सीमित दायरे में ही सोचते हैं, वैसे ही मूर्ख भी अपनी अक्ल अधिक नहीं दौड़ाते । वे भी सीमित दायरे में ही सोचते हैं। पशुओं की तरह उनमें नई बात सोचने का माद्दा ही नहीं होता।
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