SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूर्ख और तियंच को समान मानो ३२७ करिये।" वह चुपचाप संकोचपूर्वक भोजन करने लगा। थाल की भोजन सामग्री समाप्त भी नहीं हुई थी कि पुनः मनुहार के साथ भोजन परोसा जाने लगा। कृषक-पुत्र झुंझलाकर बोला-"कहीं मेरे साथ ठगाई तो नहीं की जा रही है ? आप मनुहार तो कर रहे हैं, लेकिन सोच लेना, मेरे पास ढब्बु पैसा ही है।" साले ने मजाक के स्वर में कहा-“यह तो मुझे मालूम है। यह सब ढब्बु पैसे में ही तो हो रहा है।" कृषक-पुत्र बोला-"तब तो आपके यहाँ पूरा सुकाल है।" घर के भीतर से भी हंसी की धीमी गूंज आ रही थी। भोजन करने के बाद वह साले को ढब्बु पैसा देने लगा तो उसने कहा-"अभी आप रहने दीजिये । अभी थोड़ा आराम कर लीजिये ।" एकान्त हवादार स्थान में उसकी शय्या बिछा दी गई । शय्या देखकर कृषक-पुत्र बोला-'अच्छा ! यहाँ ढब्बु पैसे में आराम की भी व्यवस्था है ?" साला हंसी को पीते हुए बोला-"जी हाँ !" और चल दिया । कृषक-पुत्र आँखें मूंदकर सोया ही था कि किसी ने उसके पैर पर हाथ की हलकी-सी चांप दी । बात यह थी कि उसकी पत्नी को अपने पति की ढब्बु पैसे की रट अच्छी नहीं लग रही थी। बच्चे भी उसे चिढ़ा रहे थे—'बुआ ! ढब्बू पैसे वाले फूफाजी आए, जीजी ! ढब्बु पैसे वाले जीजाजी आये।' इससे वह मन ही मन घबराकर एकान्त देख अपने पति को चेताने आई थी। कृषक-पुत्र ने चांप का अनुभव किया तो आँखें खोलीं, अपने सामने एक षोड़शी को खड़ी देख उसने पूछा- "तुम कौन हो ? यहाँ क्यों आई हो ? देखो, मेरे पास ढब्बु पैसे से ज्यादा कुछ भी नहीं है।" उसकी पत्नी हंसी और चिढ़कर बोली-"मैं भी ढब्बु पैसे में आ रही हूँ। अब कितनी बार ढब्बु पैसे की बात को दोहराओगे ? कुछ अक्ल से काम लो। क्या इतना सब स्वागत ढब्बु पैसे में ही हो रहा है ? यह आपकी ससुराल है। मैं आपकी पत्नी हूँ। ढब्बु पैसे की आपकी रट से अब तो जिंदगीभर आपके सिर पर ढब्बु पैसे की छाप लग गई है । मैं तो लज्जित हो गई हूँ, यह सुन-सुनकर।" कृषक-पुत्र भौंचक्का-सा रह गया । वह बोला-"अच्छा, यह मेरी ससुराल है ? मुझे क्या मालूम ?" स्त्री बोली-“आपको तभी मालूम हो जाना चाहिये था, मेरा इतना स्वागत किया जा रहा है तो कोई कारण है ? दूसरी जगह तो आपका किसी ने इतना स्वागत नहीं किया।" कृषक-पुत्र लज्जित हो गया। शीघ्र ही वह सबसे मिलकर विदा हो गया। मेरे कहने का मतलब यह है, ढब्बु पैसे वाले कृषक-पुत्र की तरह बहुत-से मनुष्य किसी बात को कसकर पकड़ लेने के कारण मूर्ख एवं हँसी के पात्र बनते हैं । इसलिये जैसे पशु अपनी अक्ल अधिक नहीं दौड़ा सकते, सीमित दायरे में ही सोचते हैं, वैसे ही मूर्ख भी अपनी अक्ल अधिक नहीं दौड़ाते । वे भी सीमित दायरे में ही सोचते हैं। पशुओं की तरह उनमें नई बात सोचने का माद्दा ही नहीं होता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy