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________________ बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं-१ १३५ ज्ञान है, सारा तप अज्ञान (बाल) तप है, सारा चारित्र कोरा. क्रियाकाण्ड है। उससे मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती । एक विचारक कहते हैं विनककं शून्यगणा यथा वृथा, विनार्कतेजो नयने यथा वृथा। विना सुवृष्टि कृषिर्यथा वृथा, विना सुदृष्धि विपुलं तपस्तथा ॥ -जैसे एक के अंक बिना केवल शून्यों का कोई मूल्य नहीं है, वृथा है; जिस प्रकार वर्षा के बिना खेती व्यर्थ हो जाती है, आँखें होते हुए भी सूर्य के प्रकाश के बिना उनकी कोई कीमत नहीं है, अमावस्या से अन्धेरे में क्या आँख वाला भी देख सकता है? इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि के बिना विपुल तपश्चरण क्रियाकाण्ड, ज्ञान, ध्यान, आचरण सब निष्फल हैं, वे मोक्षरूप फलदायक नहीं हैं । कोई व्यक्ति प्रचुर तप करता है, ग्रन्थों का अध्ययन करने से ज्ञान भी खूब है, और आचरण भी लोक-व्यवहार में ठीक प्रतीत होता है, परन्तु दृष्टि सम्यक (सम्यग्दर्शन) हुए बिना कर्मक्षय नहीं होता, सिर्फ पुण्यबन्ध हो सकता है। सम्यग्दृष्टि प्राप्त करना इसीलिए दुर्लभ है कि पहले तो सांसारिक लोगों को अथवा भौतिक पदार्थों या विषय-भोगों में रुचि वाले लोगों को सम्यग्दृष्टि प्राप्त करने की रुचि ही नहीं होती, कदाचित् रुचि भी हो जाये तो उसके प्रति श्रद्धा नहीं होती। इसीलिए कहा गया है-'सद्धा परम दुल्लहा' श्रद्धा परम दुर्लभ है । पुण्य की प्रबलता हो तो इहलौकिक या पारलौकिक सभी सामग्री मिल सकती है, परन्तु श्रद्धा झटपट नहीं मिलती। ___ आप मन में ऐसा विचार करें कि मुझे मंत्री (मिनिस्टर) बनना है, आप में योग्यता भी है, साथ ही आपका पुण्य प्रबल हो तो मंत्री के रूप में आपका चुनाव भी हो सकता है । पुण्य प्रबल हो तो कोई उच्च पद भी प्राप्त हो सकता है। किसी शत्रु पर विजय प्राप्त करना भी कठिन नहीं है । कई बार एक ही योद्धा दस हजार सैनिकों के साथ लड़ता है और प्रबल पुण्य योग से वह विजय प्राप्त करके लौटता है । तप के द्वारा इन्द्रादि का वैभव प्राप्त करना भी सुगम है । देवलोक प्राप्त करना यहाँ तक कि नवग्र वेयक पहुँचना पुण्यबल से कोई दुर्लभ नहीं है । परन्तु बोधिरत्न-सम्यग्दृष्टि प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है । दशवकालिक सूत्र में बताया हैतत्तोवि से चइत्ताणं लन्भइ एल-मूयगं । .. नरकं तिरिक्खजोणि वा बोही जत्थ सुदुल्लहा ॥ -वह मिथ्यादृष्टि किल्विषिक देव-भव से च्यवन करके बकरे की या मूक तिर्यञ्च योनि को प्राप्त करता है अथवा नरकयोनि या किसी अन्य तिर्यग्योनि को प्राप्त करता है, जहाँ बोधि अत्यन्त दुर्लभ है। मिथ्यादृष्टि जीव चाहे देवलोक चला जाये, पर वहाँ भी उसे सुख नहीं है, वह देवों के भोगविलास में आनन्द मानता है, परन्तु उसे भान नहीं होता कि इस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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