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१३४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ का उत्तम संयोग ही मिले । फिर जो अवसर या समय बीत जाता है, वह कभी लौट कर नहीं आता। इसलिए मनुष्य-जीवन पुनः प्राप्त होना सुलभ नहीं है। । श्रीमद्भागवत में भगवान् ऋषभदेव के उपदेश का सार यह है
नायं देहो देहभाजां नृलोके, कष्टान् कर्मान् नार्हते विड्भुजाय। तपो दिव्यं पुत्र ! कायेन सत्त्वं,
शुद्ध येद्यस्माद ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम् ॥ - "पुत्रो ! मनुष्य लोक में शरीरधारियों का यह नदेह (मनुष्य-शरीर) कष्टदायी कर्मों से प्राप्त भोग भोगने के लिए नहीं है । इस मनुष्य-शरीर से उत्तम दिव्य तप करने से सत्त्व (अन्तःकरण) की शुद्धि होगी और उससे फिर अनन्त ब्रह्मसौख्य प्राप्त होगा।
भगवान् ऋषभदेव के कथन का तत्पर्य यह है कि मनुष्य-शरीर भौतिक पदार्थों के उपभोग से प्राप्त सुख के लिए नहीं है, अपितु इस शरीर से दिव्यतप (रत्नत्रयसाधनारूप तप) करके अनन्त ब्रह्मसुख (आत्मसुख) प्राप्त करने के लिए है।
कहना न होगा, भगवान् ऋषभदेव के उपदेश से उनके १८ पुत्रों ने अनन्त जन्मों में दुर्लभतम सम्बोधि-लाभ (आत्मबुद्धि) का लाभ प्राप्त किया; और विरक्त होकर भगवान ऋषभदेव के चरणों में पूर्ण स्वाधीनता का आध्यात्मिक राज्य प्राप्त करने हेतु दीक्षा ले ली।
इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि आत्मबुद्धिरूप बोधि की प्राप्त कितनी मूल्यवान और दुर्लभ है। सम्यग्दृष्टि की दुर्लभता : क्या और क्यों ? . बोधिलाभ का तीसरा अर्थ है—सम्यग्दृष्टि या सम्यग्दर्शन का लाभ । यह प्राप्त होना भी अत्यन्त दुर्लभ है। तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्दर्शन का अर्थ किया गया है
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम -तत्त्वरूप जो पदार्थ (जीव, अजीब आदि) हैं उन पर सम्यकश्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है।
इसका विशद अर्थ यों किया जा सकता है, जिस पदार्थ का जो वास्तविक स्वरूप है, उसे उसी रूप में समझना और मानना तथा उस पर दृढ़ विश्वास करना । अर्थात्-जो हेय है, उसे हेय समझना, जो ज्ञय है उसे ज्ञय और जो उपादेय है, उसे उपादेय समझना। जो जैसा है, उसे उसी रूप में ग्रहण करने की तत्परता या जागृति रखना। ... सम्यग्दृष्टि न हो तो उस व्यक्ति का ज्ञान, चारित्र (आचरण) तप, जप या कोई भी क्रिया सम्यक् नहीं हो सकती । सम्यग्दृष्टि के अभाव में सारा ज्ञान मिथ्या
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