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________________ १३६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ क्षणिक सुख का परिणाम कितना भयंकर आयेगा ? कदाचित् मिथ्यात्व के कारण उसे कई बार नरक में भी जाना पड़े; क्योंकि मिथ्यात्व के कारण देवभव में भी वह दूसरे देवों के सुखों, परिग्रह, दिव्यद्यति, ऋद्धि-सिद्धि, देवांगना आदि को देख-देखकर ईर्ष्या, रोष, कलह, द्वेष, मोह, आसक्ति वगैरह करता है, जिसके फलस्वरूप अनेक पापकर्मों का जत्था इकट्ठा हो जाता है । सम्यग्दृष्टि जीव यदि नरक में भी होता है, तब भी मिथ्यादृष्टि देव की अपेक्षा सुखी रहता है, क्योंकि नरकगति में गया हुआ सम्यग्दृष्टि विचार करता है कि मैंने अपने अशुभकर्मोदयवश नरकगति पाई है । अब यदि मैं इन कष्टों को समभावपूर्वक सहन नहीं करूंगा, हाय-हाय करके सहूँगा तो और नये अशुभकर्मों का बन्धन कर लूंगा, पुराने अशुभकर्मों का भी क्षय नहीं होगा, इसके फलस्वरूप मुझे पुन: नरक में आना पड़ेगा । इस दृष्टि से सम्यग्दृष्टि जीव चाहे नरक में हो या तिर्यञ्च में, कैसी भी परिस्थिति में हो, अपने को दुःखी नहीं मानता, न ही कष्ट भोगते समय दुःख महसूस करता है । सुख और दुःख दोनों ही प्रत्येक मानव के जीवन में धूप-छाया की तरह आतेजाते हैं । सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों का जीवन सुख और दुःख की राह से गुजरता है, किन्तु मिथ्यादृष्टि दुःख में व्याकुल और सुख में प्रफुल्ल हो जाता है, Wafe सम्यग्दृष्टि दुःख में निराकुल और सुख में सम रहता है । सम्यग्दृष्टि पर असातावेदनीय कर्म के उदय से दुःख आता अवश्य है, लेकिन निराकुलता होने के कारण वह दुःख को दुःख का महसूस नहीं करता । इस कारण दुःख भी उसके लिए कर्मक्षय का साधन बन जाने के कारण सुखमय बन जाता है । एक उदाहरण से इसे समझाना ठीक रहेगा । एक मनुष्य भूल से दवा के बदले जहर पी गया । डॉक्टर को बुलाया गया। डॉक्टर ने कहा - " यह बच जायेगा, बशर्ते कि पीया हुआ सारा जहर वमन द्वारा निकल जाये । मैं वमन होने की दवा देता हूँ ।" रोगी ने डॉक्टर के द्वारा दी गई वमन की दवा ले ली । यद्यपि वमन करने में उसे बहुत कष्ट होता है, आंतों को बहुत जोर पड़ता है। गले और नाक में से जब वमन द्वारा जहरीला तरल पदार्थ निकलता है, तब असह्य हो जाता है । आँखों की पुतलियाँ भी बाहर निकल - सी पड़ती हैं। फिर भी रोगी कहता है कि जितनी अधिक के हों उतना ही अच्छा । भला वह रोगी ऐसा क्यों मानता है ? वह इसलिए के होना अच्छा समझता है कि के होने के दुःख की अपेक्षा पेट में जहर के रह जाने का दुःख कई गुना घातक तथा प्राणनाशक हो जायेगा । इस कारण उसे आकुल-व्याकुल करने वाला वमन का दुःख दुःखरूप नहीं लगता । वह चलाकर मुँह में उंगली डालकर अधिक वमन करने का प्रयत्न करता है । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव सोचता है कि असातावेदनीय कर्मरूपी जहर निकल रहा है । इस कारण उसे वह दुःख वमन की तरहं दुःख नहीं, सुखरूप लगता है । क्योंकि वह मानता है कि सुख और दुःख दोनों मन की ही माया है, मन ही इनका उद्भव स्थान है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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