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________________ बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं-१ १३७ आपमें से बहुत-से लोगों ने अनेक बार सुना होगा कि महामुनि स्कन्दक के देह की चमड़ी मृतपशु की चमड़ी की तरह जीवित दशा में ही उतारी जाती रही, किन्तु उनके मुखमण्डल पर प्रसन्नता अठखेलियाँ करती रही । तरुणतपस्वी मुनि गजसुकुमार के मस्तक पर धधकते अंगारे रखे गये किन्तु वे समत्व के सागर में गहरा गोता लगाते रहे । उनके मुख पर वही शान्ति विरामजान रही, वे क्षमाशील बने रहे। ____ मैं आपसे पूछता हूँ कि इतनी असह्य पीड़ा होने पर भी उन्हें क्यों नहीं महसूस हो रही थी। उनका शरीर भी हमारी तरह हड्डी, मांस, चर्म आदि का था ! शारीरिक दुःख-दर्द तो उन्हें भी हुआ होगा? फिर क्या कारण है कि उनके चेहरे पर शान्ति, प्रसन्नता और क्षमा विराजमान रही ? इसका समाधान यह है कि उन्हें वह दुर्लभातिदुर्लभ बोधि (सम्यग्दृष्टि) प्राप्त हो गई थी। उनका वीतरागवाणी में अडिग एवं अटल विश्वास था-नस्थि जीवस्स नासोत्ति-जीव (आत्मा) का कभी नाश नहीं, होता, नाश होता है शरीर का । शरीर तो मैं नहीं हूँ, मैं तो शरीरी (देही) हूँ। शरीर के नष्ट होने से मेरा कुछ भी नष्ट नहीं होता 'देह विनाशी, मैं (आत्मा) अविनाशी अजर-अमर पद मेरा' ऐसी सम्यग्दृष्टि उन्हें प्राप्त हो चुकी थी। इसी कारण उन्होंने देहदुःख को दुःख नहीं माना । दूसरी बात यह है कि उन्होंने दुःख का कारण बाहर में नहीं, अपने अन्दर ही देखा। उन्होंने बाह्य निमित्तों को कोई भी दोष नहीं दिया, अपने ही उपादान को देखा कि मैं जो कुछ भी दुःख भोग रहा हूँ उसका मूल कारण मैं ही हूँ, दूसरा कोई नहीं । मेरे ही द्वारा कृतकर्मों का फल मैं भोग रहा हूँ। यह ठीक है कि अनायास ही मुझे कर्मों का कर्ज चुकाने का अवसर आ गया है । तब मुझे कर्ज चुकाने में घबराना क्यों चाहिए ? सम्यग्दृष्टि के चिन्तन में यही तो जादू है । वह विष को भी अमृत बना लेता है। मिथ्यादृष्टि आत्मा इस संसार को सत्य और यहाँ के पदार्थों को शाश्वत समझकर उन्हीं की प्राप्ति में अहर्निश संलग्न रहता है । धन और अभीष्ट जन के संयोग से वह हर्षावेश में आकर फूल उठता है और उनके वियोग में व्याकुल होकर तड़फता है । धन और अभीष्टजन के नाश को बह अपना नाश समझकर विलाप और शोक करता रहता है। देह की दीवार को भेदकर वह अन्तःस्थित देही (आत्मा) के तेज, बल और वीर्य को नहीं पहचान पाता। वह शुभ को देखकर प्रसन्न और अशुभ को देखकर खिन्न हो उठता है। शुभ और अशुभ यानी पुण्य और पाप से ऊपर उठकर शुद्ध (धर्म) को वह नहीं पकड़ पाता। वह पुण्य-पाप के घेरे से निकल नहीं पाता। जहाँ भी जीवन में स्थूलदृष्टि से सुन्दर दृश्य आया वह फूलने लगेगा, और असुन्दर (बुरा) दृश्य आया कि रोनेचिल्लाने लगेगा । उसके जीवन में आत्मिक सुख-निराकुलतायुक्त सुख, शान्ति और सन्तोष नहीं। वह सदैव अशान्त, उद्विग्न और परेशान बना रहता है। यह उसकी मिथ्यादृष्टि का ही प्रभाव है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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