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३०८ आनन्द प्रवचन : भाग ११
प्रदर्शन, अपव्यय और अनावश्यक संग्रह को कोई स्थान नहीं होता । ऋषि जीवन अपने सत्य, प्रेम और न्याय की त्रिपुटी से समाज, राष्ट्र और विश्व को आकर्षित एवं प्रभावित कर लेता है । इस जीवन में क्षुद्रस्वार्थ और मोह सम्बन्ध को कोई स्थान नहीं होता । ऋषि के लिए सारा विश्व एक कुटुम्ब होता है, वह किसी एक परिवार, एक जाति, एक समाज, एक राष्ट्र, एक प्रान्त, एक ग्राम, नगर या एक भाषा आदि से मोहवश बँधा हुआ नहीं होता । ऋषि जीवन में अपने-पराये, तेरे मेरे या अहं मम की संकीर्ण दीवारें नहीं होतीं ।
ऋषि भले ही विचरण करता हुआ किसी एक गाँव या हो, चातुर्मास के लिए चार मास एक जगह निवास कर लेता हो, में सारा विश्व होगा, ऋषि को भले ही प्रसंगवश एक प्रान्त, एक राष्ट्र या एक ग्रामनगर के लोगों से वास्ता पड़ता हो, किन्तु उसका हार्दिक सम्पर्क सारी मानव-जाति से होगा, चाहे उसे मानवों से ही, उसमें भी जैन आदि से ही प्रायः अधिक सम्पर्क में आना पड़ता हो, लेकिन उसका मैत्रीभाव या बन्धुत्व सारे विश्व के सभी धर्म-सम्प्रदाय, जाति आदि के मानव समूह से होगा, वह हरिजन, परिजन, गिरिजन, छूत-अछूत, सवर्ण-असवर्ण, ऊँच-नीच आदि का भेदभाव मनुष्यों में नहीं करेगा । मानव-जाति ही नहीं, संसार के सभी प्राणियों को वह आत्म-समान मानेगा, भले ही सभी प्राणियों से उसका वास्ता न पड़ता हो, वह समय आने पर सभी प्राणियों पर करुणा, दया आदि करेगा । उसके मस्तिष्क में अपना स्वार्थ गौग होगा, समाज, राष्ट्र या विश्व का स्वार्थ- परमार्थ मुख्य होगा । ऋषि जीवन जातियों, प्रान्तों, राष्ट्रों, भाषाओं या धर्म-सम्प्रदायों के संघर्ष में भाग नहीं लेगा बल्कि उसके सामने ये प्रश्न आने पर माध्यस्थ्य एवं समत्व के सिद्धान्तों से प्रेरित होकर वह उनमें समन्वय और सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न करेगा । सामायिक या समतायोग ही उसके जीवन का मूलमंत्र होगा । ऐसे ऋषि जीवन की महिमा तिलोक काव्य संग्रह में सुन्दर शब्दों में व्यक्त की गई है— रिख सो ही छही काय जीव के जतन करे, स परिहार अरजुन अनगार-सी । रिद्ध है अखूट ज्ञान-ध्यान-तप-जपरूप, ताते कर्मरिपु निर्मूल कर ऋतु छहु मांही रीत पाले जिनमारग की,
डारसी ॥
सत्य माने प्रभुवाणी मिथ्या माने छार-सी । ऐसे रिखराज रिद्ध जहाज समान सही,
कहत तिलोक वे ही भवोदधि तारसी ॥' भावार्थ स्पष्ट है | वास्तव में ऋषि धर्म की प्रतिक्षण रक्षा करने वाले जागरूक प्रहरी है । जहाँ भी स्वार्थ और परमार्थ में टक्कर होगी, वहाँ वे स्वार्थ को नहीं,
१. तिलोक काव्य संग्रह, द्वितीय बावनी, काव्य ४६
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नगर में ठहर जाता
परन्तु उसकी दृष्टि
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