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________________ ऋषि और देव को समान मानो ३०७ रहकर मनुष्य भाषा में बोलने लगा – “ओ याज्ञिको ! तुम मुझे अग्नि में होमना चाहते हो तो पहले मुझे बाँधो, फिर मारो, देखूं तो सही तुम कितने पानी में हो । अगर मैं भी तुम्हारी तरह निर्दय बन जाऊँ तो तुम सबको एक क्षण में यमलोक का मेहमान बना दूं । अगर मेरे चित्त में दया न हो, मैं कषायभाव लाकर जैसे लंका में हनुमानजी ने किया था, वैसे ही तुम्हारे नगर का बेहाल आकाश में खड़ा खड़ा कर सकता हूँ ।" इस प्रकार के वचन सुनकर भयभीत होकर यज्ञकर्ता ब्राह्मण पूछने लगे"आप कौन हैं ? " तब वह अपने आपको प्रगट करके बोला - " मैं पावक हूँ। यह अकरा मेरा वाहन है । उसे तुम लोग व्यर्थ ही क्यों मारते हो ? तुम लोग शुद्ध धर्म से विमुख हो रहे हो । इस नगर में प्रियग्रन्थ नामक जैनाचार्य पधारे हुए हैं । उनके सान्निध्य में जाकर तुम विशुद्धधर्म की पृच्छा करो एवं उस धर्म को स्वीकार करो । वे आचार्य नरेन्द्रों में जैसे चक्रवर्ती, धनुर्धारियों में जैसे धनंजय हैं, वैसे ही सर्वसत्यवादियों में शिरोमणि हैं ।" यह सुनकर सभी ब्राह्मण उन आचार्यश्री की सेवा में पहुँचे और उनसे पूछा— "भगवन् ! शुद्ध धर्म का स्वरूप बताने की कृपा करें ।” आचार्यश्री ने उन सबको धर्मं सुनाया। जिसे सुनकर उन्होंने स्वीकार किया और तदनुसार आचरण करने का संकल्प किया । इस प्रकार ऋषि अधर्म मार्ग या पापमार्ग पर चढ़े हुए मनुष्यों को उक्त अशुभ मार्ग से हटाकर शुद्ध मार्ग पर आरूढ़ कर देते हैं । ऋषिजीवन की पहचान ऋषि जब दूसरों को धर्ममार्ग में आरूढ़ और स्थिर करते हैं, तब उन्हें अपने जीवन में क्षमा, दया, करुणा, सेवा, मंत्री, विश्वबन्धुत्व, आत्मीयता, सहिष्णुता, क्षमता आदि गुणों का विशेषरूप से अभ्यास करना पड़ता है, इन गुणों को श्वाच्सोछ्वास की तरह जीवन में प्रतिष्ठित करना पड़ता है, तभी वह दूसरों को धर्ममार्ग में प्रेरित कर सकता है, तभी उसकी वाणी में बल, जोश, प्रभावशालिता, शक्तिमत्ता एवं दृढ़ता आ सकती है । तभी वह दूसरों को निर्भय होकर सच्ची और साफ बात कह सकता है । यदि ऋषि में ये गुण नहीं होंगे तो वह हर बात में दूसरों से दबेगा, भयभीत होगा, दूसरों का लिहाज रखेगा, लल्लो-चप्पो करेगा या दूसरों को ठकुरसुहाती कहेगा । सचमुच ऋषि के लिये ऐसी दुर्बलताएँ कलंकरूप होंगी । ऋषि के जीवन को लोभ, मोह, भय, चिन्ता आदि विकारों से कलुषित कर देंगी । ऋषि जीवन वह पवित्र जीवन है, जिसकी सफेद चादर पर जरा-सा भी दुर्गुण का धब्बा सह्य नहीं होता । ऋषि जीवन व्यसनमुक्त, फैशन और विलास से दूर सात्त्विक और निर्दोष होता है। ऋषि जीवन में व्यसन और विलास, आडम्बर और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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