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________________ ३०६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ समाज को किस समय कैसा व्यवहार करना चाहिये ? किस-किस व्यक्ति का क्याक्या धर्म है ? उसका आचरण कैसे करना चाहिये ? इन और ऐसे ही विषयों में मंथन करके, मनन-चिन्तन करके ऋषिगण मन्त्रों के द्रष्टा एवं स्रष्टा वनते थे। वे समाज को उन मन्त्रों का उपदेश भी देते थे, जिनसे समाज का हित-कल्याण हो । ऋषि का स्वरूप बताते हुए तिलोक काव्य संग्रह में कहा हैऋषि नाम सो ही षट्काय के दयालभाव, साधु साधे आतमा उपाधि राह तजता। अन्तःकरण ह की वासना वमत मूनि, भक्त भगवन्त को सो निरन्तर भजता ।। वैरागी सो राग, द्वेष, मोह ते रहित होय, द्रव्यभाव-ग्रन्थ तजे निगरंथ बजता । सत्य पक्ष गहे संत कहत तिलोक तंत, __ तंतन में तंत-तंत जिनमग अजता ॥ भावार्थ यह है कि ऋषि वह है, जो षड्जीवनिकाय के प्रति दयाभाव रखता है, आत्मा को उपाधि में डालने वाला मार्ग छोड़ देता है, जगत् के तत्त्वों का मनन करके अन्तःकरण की वासनाओं का वमन (त्याग) कर देता है, भगवद्भक्त बनकर सतत भजन करता है, संत बनकर सत्य का पक्ष लेता है, समस्त तत्त्वों का सारभूत तत्त्व-मोक्ष है, उसे प्राप्त करने के लिये जैन (वीतराग भगवान-प्ररूपित) पथ को स्वीकार करता है । वास्तव में सच्चा ऋषि शुद्ध धर्म के विपरीत कार्य जहाँ कहीं भी धर्म के नाम से होता हो, वहाँ उसका विरोध करता है, कोई व्यक्ति अधर्म या पाप के रास्ते जाता हो, किसी भी तरह से न मानता हो, उसे षट्कायप्रतिपालक ऋषि किसी भी सात्त्विक उपाय से धर्म की राह पर ले आते हैं। इस दृष्टि से ऋषि धर्मप्रभावक, धर्मरक्षक एवं धर्ममार्गप्रापक कहे जा सकते हैं। कल्पसूत्र स्थविरावली में उल्लिखित एक उदाहरण प्रस्तुत करना यहाँ अप्रासंगिक नहीं होगा अजमेर के निकट प्राचीनकाल में हर्षपुर नामक एक नगर था। वहाँ सुभटपाल राजा राज्य करता था । उस नगर में १८ सौ ब्राह्मणों के तथा ३६०० वणिकों के पर थे तथा अनेक बाग-बगीचा, बावड़ी, कुआ, दानशाला, भवन, जलाशय, आराम आदि से वह नगर सुशोभित था। एक बार वहाँ प्रियग्रन्थ नाम के आचार्य पधारे। उन्हीं दिनों में, वहाँ के ब्राह्मण यज्ञ के निमित्त बकरे का वध करने लगे। श्रावकों ने आकर आचार्य प्रियग्रन्थ को ये दुःखद समाचार दिये । आचार्यश्री ने वासक्षेप को अभिमंत्रित करके एक श्रावक को दिया और कहा-इसे बकरे के मस्तक पर डालना। श्रावक ने ऐसा ही किया। इससे बकरे के शरीर में तत्काल अम्बिका देवी आई । अतः बकरा आकाश में अधर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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