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________________ ७८. ऋषि और देव को समान मानो धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं आपको ऋषिजीवन की दिव्यता और भव्यता की झाँकी कराना चाहता हूँ। ऋषि का जीवन दिव्यजीवन-सदृश होता है। उस जीवन में देवीगुण स्वाभाविक रूप से विकसित होते हैं । इसीलिये गौतमकुलक में कहा गया रिसी य देवा य समं विभत्ता -ऋषि और देव, ये दोनों समानरूप से सम्मान्य होते हैं । गौतमकुलक का यह ६४वाँ जीवनसूत्र है। इस जीवनसूत्र में ऋषि को देवतुल्य सम्मान्य बताया गया है । आइये, हम विभिन्न पहलुओं से इस पर विचार करें कि ऋषि और देव में किन कारणों से और किन बातों में साम्य है ? ऋषि कौन ? सर्वप्रथम हमें समझ लेना चाहिये कि ऋषि कौन होते हैं ? उनका स्वरूप क्या है ? ऋषिजीवन कैसा जीवन है ? ऋषि की व्युत्पत्ति वैयाकरणों ने इस प्रकार की है ऋच्छति गच्छति-प्राप्नोति ऊर्ध्वस्थानमिति ऋषिः । -जो ऊर्ध्वस्थान-मोक्षस्थान को प्राप्त करता है, उसकी ओर गमन करता है, वह ऋषि है। ऋषि मानव-समाज का एक सजग प्रहरी है, जो स्वयं अमृतपुत्र बनकर अमृत बाँटता और स्वयं आस्वादन करता हुआ अमरत्व की ओर बढ़ता है। जहाँ-जहाँ वह देखता है, लोग अमरत्व-प्राप्ति के विरुद्ध चेष्टाएं कर रहे हैं, अमृतत्व पाने के अवसर को खो रहे हैं, वहाँ वह जागृत रहकर प्रम से सबको अमृतपिता का सन्देश देता है । इस प्रकार ऋषि जीवन और जगत् के महानियम को जानकर स्वयं तदनुसार आचरण करता हुआ दूसरों को उस महानियम को प्रेरणा देता हुआ चलता है। ऋषि भविष्यद्रष्टा और क्रान्तद्रष्टा होते हैं, वे पहले से संसार की गतिविधि पर से भविष्य का अनुमान लगा लेते हैं और समाज को चेतावनी दे देते हैं । वेदों में विभिन्न ऋषियों के नाम की ऋचाएं हैं । वहाँ ऋषि की महिमा बताते हुए कहा गया है ऋषयो मंत्र द्रष्टारः ऋषि, वे हैं, जो मानव-समाज के लिये उपयोगी मन्त्रों के द्रष्टा हैं। मानव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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