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________________ ३० आनन्द प्रवचन : भाग ११ भाव से बनावटी कोप दिखाकर समझाती, कभी किसी को हंसकर समझाती। बच्चे जब खेलने लगते तो बुढ़िया अपना चर्खा कातने लग जाती। कन्फ्यूशियस जैसे ही वहाँ पहुँचे, सब लड़के भाग गये । कन्फ्यूशियस ने बुढ़िया से पूछा-"माताजी ! कोई आत्मज्ञान की बात सुनाओ।" बढ़िया मुस्कराकर कहने लगी-"ये जो अभी बच्चे खेल रहे थे, और आप संब लोग आये हैं, ये सब आत्मा ही तो हैं। मेरा आत्मज्ञान यही है कि सब आत्माओं के साथ अच्छा व्यवहार करना, 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का व्यवहार ही आत्मज्ञान का मूल स्रोत है। छोटे बच्चों में भी आत्मा है, इन बच्चों का रूठना, मेरा मनाना, निरर्थक शोरगुल के समय झुंझलाना नहीं, इन्हें प्रेम से समझाना, इनके साथ विनोद करना, यही मेरा आत्मज्ञान है।" कन्फ्यूशियस शिष्यों को साथ लेकर लौट पड़े । उन्होंने बताया कि इस बुढ़िया की बुद्धि निष्काम और सात्त्विक है । इसी प्रकार की बुद्धि हर समस्या का सही हल खोज लेती है। किसी भी संकट के समय ऐसी बुद्धि घबराती नहीं, सन्तुलन नहीं, खोती, अपनी मस्ती नहीं छोड़ती। भगवद्गीता (अ० २) में भी कहा है प्रसन्नचेतसो ह्याशुबुद्धिः पर्यवतिष्ठति । -जो प्रसन्नचेता है, उसी की बुद्धि शीघ्र स्थिर हो जाती है। गीता में वर्णित 'स्थितप्रज्ञ' और जैनशास्त्र आचारांग सूत्र में निरूपित 'स्थितात्मा'-ये सब 'जितात्मा' के ही पर्यायवाची हैं। जितात्मा स्वभावविजेता आत्मा अनादि काल के कुसंस्कारवश बार-बार अपने स्वभाव को छोड़कर परभाव या विभाव में चली जाती है, कभी राग और द्वेष में, कभी मोह और आसक्ति में, कभी क्रोधादि कषायों में और काम आदि वासनाओं में। स्वभावविजेता जितात्मा अपनी आत्मा को सतत अभ्यास के द्वारा स्वभाव में स्थित रखता है। वह परभावों या विभावों के प्रलोभन या आकर्षण से लुब्ध या आकृष्ट नहीं होता। प्रतिक्षण वह विवेक का दीपक जलाकर चलता है । यह स्वभाव है या परभाव ? इसका निर्णय तो थोड़े-से अभ्यास से व्यक्ति तुरंत कर सकता है । परन्तु शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि परभाव होते हुए भी इन्हीं से काम लेना पड़ता है । इसी प्रकार माता-पिता, भाई-बन्धु, कुटुम्ब, समाज, राष्ट्र आदि परभाव होते हुए भी इनसे रात-दिन वास्ता पड़ता है। ऐसी स्थिति में स्वभावविजेता क्या करे ? क्या वह इन सब परभावों को एकदम तिलांजलि दे दे ? इनसे किनाराकसी कर ले ? इसी प्रकार आहार-पानी, अन्न, औषध, मकान, वस्त्र, बर्तन आदि साधन भी परभाव हैं, इनका इस्तेमाल किये बिना प्रायः मनुष्य का काम नहीं चलता, ऐसी दशा में परभाव कोटि की असंख्य वस्तुएँ हैं , जिनके बिना न तो गृहस्थों का जीवन टिक सकता है और न ही साधुओं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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