SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जितात्मा ही शरण और गति -- १ का । अतः ऐसी स्थिति में स्वभावविजयी कैसे और किस तरीके से अपने स्वभाव पर स्थिति रह सकता है, या परभाव से दूर रह सकता है ? जैनदर्शन इसके लिए दो शब्दों में निपटारा कर देता हैं, वे हैं- राग और द्वेष । इन्द्रियाँ हैं, इन्द्रियों के विषय हैं, शरीर है, शरीर के विविध अंगोपांग हैं, मनबुद्धि आदि हैं। आहार आदि जीवनयापन के विविध साधन हैं । इनका उपयोग करना अनिवार्य जान पड़े तो करना पड़ता है परन्तु ध्यान रहे कि न इन पर राग (मोह या आसक्ति) करना है और न ही द्व ेष ( घृणा, विद्रोह या वैर - विरोध) करना है । इन्द्रिय, मन आदि के साथ लगने वाले राग और द्वेष से सावधान रहना है । इन्हें विभाव के मूल एवं कर्मबीज जानकर जब भी ये आने लगें, तुरन्त खदेड़ना है । स्वभावविजेता यह देखता रहता है, कि ये परभाव वैसे ही पास पड़े रहें तो भले ही रहें, परन्तु इन्हें देखकर राग-द्वेष, मोह-घृणा, वैर- विरोध, आसक्ति, द्रोह आदि मन में उत्पन्न न हों, बुद्धि में ये भाव ही उत्पन्न न हों । एक वीतरागी निःस्पृही साधु भी बगीचे में बैठता है, उसे न तो बगीचे पर मोह है और न ही उसके प्रति द्वेष या घृणा है । वह वहाँ रहता भी है तो निःस्पृह भाव से । किन्तु उस बगीचे का मालिक आता है, उसे बगीचे के प्रति राग और मोह है, अगर दूसरा कोई बगीचे में अपना डेरा डालता है या कब्जा जमाने लगता है तो उसके प्रति द्वेष और वैर हो जाता है । यहीं परभाव की विजय है, इसी विजय को जितात्मा स्वभावजयी पराजय में बदलता है । वह किसी भी वस्तु के प्रति न तो राग या मोह करता है और न ही द्व ेष या द्रोह करता है, न ही आसक्ति या घृणा । यहाँ तक कि शरीर, इन्द्रियों और मन का उपयोग करते हुए भी स्वभावजयी इन परभावों आत्मा पर हावी नहीं होने देता । आवश्यकता पड़ने पर वह परभावों का तटस्थभाव से सेवन भी करता है, किन्तु राग-द्वेष से परे होकर स्वभाव के अविरुद्ध होने पर ही । ३१ परभावों से निकट में रहता है, निष्कर्ष यह है कि स्वभावजयी अनिवार्य उनका आवश्यकतानुसार उपयोग भी करता है, सेवन भी करता है, परन्तु स्वभाव पर राग-द्वेषादि के माध्यम से होने वाले परभावों के हमले को नहीं होने देता; उससे स्वभाव की सुरक्षा करते हुए । स्वभाव — आत्मभाव है, उसके अतिरिक्त सभी पर भाव या विभाव हैं । ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा इनसे सम्बन्धित जो भी आत्मा के निजी गुण हैं, वे स्वभाव हैं और इनसे विपरीत - परभाव हैं । स्वभाव और परभाव के द्वन्द्व में स्वभावजयी स्वभाव को जिताता है, परभाव को नहीं । परभाव को वह सदैव परास्त करता है, वह परभाव को एक क्षण के लिए भी स्वभाव पर हावी नहीं होने देता । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy