SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रेमराग से बढ़कर कोई बन्धन नहीं ११५ पर आइए। महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र में बताया है कि प्रेमराग सबसे बढ़कर बन्धन है; सवाल यह होता है कि यह कौन-सी किस्म का बन्धन है ? दूसरे बन्धन तो आँखों से दिखाई देते हैं । कोई किसी को रस्सी से बाँध देता है, लोहे की जंजीर से बाँध देता है या पैरों में बेड़ियाँ और हाथों में हथकड़ियाँ डालकर बाँध देता है अथवा किसी प्रकार का प्रतिबन्ध लगाता है या किसी को कोठरी आदि में बन्द कर देता है तो इन स्थूल बन्धनों से तो मुद्दत पूरी होने पर छूट भी सकता है, इन बन्धनों से युक्ति एवं उपायों से छुटकारा भी पाया जा सकता है, परन्तु प्रेमराग का बन्धन अनोखा है, इसके बन्धन में एक बार पड़ जाने पर व्यक्ति सहसा इसे तोड़ नहीं सकता है, बल्कि इसमें अधिकाधिक जकड़ता जाता है। यह बन्धन स्थूल आँखों से नहीं दिखाई देता है । इस बन्धन में पड़ जाने पर मोह और आसक्ति के कारण मनुष्य की सही सोचने की दृष्टि पर पर्दा पड़ जाता है। यह भावबन्धन है, द्रव्यबन्धन नहीं। इसीलिए नीतिकार कहते हैं बन्धनानि खलु सन्ति बहूनि, प्रेमरज्जुकृतबन्धनमन्यत् . । दारुभेदनिपुणोऽपि षडंघ्रि निष्क्रियो भवति पंकजकोषे ॥ -संसार में बहुत से बन्धन हैं, लेकिन प्रेमरूपी रस्सी का बन्धन अनोखा ही है। तभी तो काष्ठ का भेदन करने में निपुण भौंरा कमल के कोष में (प्रेमरागवश) निष्क्रिय हो जाता है, उसे तोड़कर बाहर नहीं निकलता। वास्तव में भौरा इतना शक्तिशाली है कि वह चाहे तो कमल तो क्या सख्त लकड़ी को अपने नुकीले मुह से काट सकता है, लेकिन कोमल कमल-कोष में स्वयं बंद पड़ा रहता है, क्यों ? केवल कमल के प्रति प्रेमरागवश। कविवृन्द के शब्दों में जैसो बन्धन प्रेम को, तैसो बन्ध न और । काठहि भेदे, कमल' को, छेद न निकले भौंर ।। प्रेमराग के बन्धन को कठोरतम तथा तथा दृढ़ बताते हुए एक कवि कहता है मुच्यते शृंखलाबद्धो, नाडीबद्धोऽपि मुच्यते । . . न मुच्यते कथमपि प्रेम्णा बद्धो निरर्गलः ॥ -साँकलों से बंधा हुआ मुक्त हो जाता है, नाड़ी से बद्ध भी छुटकारा पा जाता है, किन्तु जो प्रेम-बन्धन से निरर्गल बद्ध है, वह किसी भी प्रकार से मुक्त नहीं होता। कितनी मार्मिक बात कह दी है, कवि ने । वास्तव में प्रेमरूपी राग का बन्धन बहुत ही जटिल और कठिनतर है। बड़े-बड़े मनीषी, तत्त्वचिन्तक, साधु-संन्यासी तक के लिए भी इस प्रेम राग-रूप बन्धन में फंस जाने पर निकलना दुष्कर है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy