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________________ ११६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ प्रेम-रागकृत बन्धन कितना मोहक, कठोर और जटिल होता है ? इस सम्बन्ध में सूत्रकृतांगसूत्र की टीका में एक कथा दी है समुद्र पार आर्द्र कपुर नाम का नगर था। वहां के राजा और रानी का नाम आर्द्र और आर्द्रा था। उनके एक सुपुत्र था, जिसका नाम उन्होंने आर्द्रककुमार रखा था। एक बार राजगृह से मगधसम्राट श्रेणिक ने मन्त्री के साथ उपहार भेजा। उस उपहार को देख आर्द्र ककुमार ने पूछा- "पिताजी ! यह उपहार किसने भेजा है ?" राजा ने कहा- "भारतवर्ष में मेरा मित्र श्रेणिक राजा है, उसने यह उपहार भेजा है।" राजकुमार ने आगन्तुक मन्त्री से पूछा-"आपके राजा के मेरी आयु का कोई गुणवान पुत्र भी है ?" मन्त्री बोला-"हाँ, है क्यों नहीं ? अभयकुमार है।" आर्द्र ककुमार ने अपनी ओर से अभयकुमार के योग्य उपहार पत्र सहित मन्त्री को सौंपते हुए कहा-“यह उपहार अभयकुमार को देना।" उक्त मन्त्री ने राजगृह पहुँचकर वह उपहार तथा पत्र अभयकुमार को दिया। बुद्धिनिधान अभयकुमार ने सोचा-यह मेरे साथ मैत्री करना चाहता है। प्रभु महावीर ने एक बार कहा था"तेरे साथ जो भी मैत्री करेगा, वह अवश्य ही सम्यक्त्व प्राप्त करेगा।" अतः मालूम होता है कोई आसन्न सिद्धिक लघुकर्मा जीव है यह ! पिछले जन्म में किसी व्रत की विराधना करके आया लगता है, इसी कारण अनार्य देश में जन्म लिया है। यह सब सोचकर अभयकुमार ने सामायिक-साधना के सभी उपकरण एक पेटी में बन्द करके आद्रककुमार को प्रतिबोध देने हेतु भेजे । आर्द्र ककुमार ने अपूर्व उपहार समझकर एकान्त में ले जाकर पेटी खोली । धर्मोपकरण देखकर बार-बार ऊहापोह करते-करते उसे जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ। उसके कारण उसने अपना पूर्वजन्म इस प्रकार देखा वसन्तपुर नगर में सामायिक नामक गृहस्थ था। उसकी पत्नी का नाम बन्धुमती था। एक दिन पति-पत्नी दोनों ने धर्मोपदेश सुनकर भागवती दीक्षा ले ली। दीक्षा लेकर दोनों अलग-अलग विचरण करने लगे। एक बार मुनि और साध्वी दोनों एक नगर में मिले। अपनी गृहस्थपक्षीय पत्नी को साध्वी के रूप में देखकर मुनि को कामराग उत्पन्न हुआ। आचार्य ने जब यह बात जानी तो उन्होंने प्रवत्तिनी (साध्वी प्रमुखा) को कहलवाया कि बन्धुमती आर्या को अधिक बाहर न निकलने देना। बन्धुमती साध्वी को जब उसका कारण मालूम हुआ तो विचार करने लगी—धिक्कार हो मेरे इस रूप को, जिसे देखकर मेरे संसारपक्षीय पति–सामायिक मुनि का मन विचलित हुआ। यों चिन्तन करके साध्वी ने अनशन कर लिया । क्रमशः आयुष्य पूर्ण करके देवलोक में पहुँची। सामायिक साधु को भी जब यह ज्ञात हुआ तो उसने भी अनशन किया और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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