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________________ प्रेमराग से बढ़कर कोई बन्धन नहीं ११७ देहावसान के बाद वह भी स्वर्ग में पहुँचा । वही सामायिक साधु मैं था, मैं देवलोक से च्यवकर इस अनार्य देश में जन्मा हूँ। यों अपने जातिस्मरणज्ञान के प्रकाश में देखकर सोचा-सचमुच अभयकुमार के अलावा मुझे अनार्य देश में कौन प्रतिबोध देता ? यों अभयकुमार को बहुत उपकारी मानकर उससे मिलने की उत्कट इच्छा प्रदर्शित की लेकिन उसके पिता ने उसको भारतवर्ष जाने की अनुमति नहीं दी। पिता ने सोचा-इसे संसार से कहीं विरक्ति न हो जाए; यह सोचकर पिता ने ५०० सुभट उसकी रखवाली के लिए नियुक्त कर दिये। उन्हें यह हिदायत दे दी कि कुमार कहीं भी घूमने-फिरने या खेलने जाए, साथ-साथ रहो। अतः कुमार के साथ ५०० सुभट रहने लगे। पर कुमार अपना घोड़ा प्रतिदिन आगे कुछ न कुछ दूर भगा ले जाता, इससे कभी एक घड़ी और दो घड़ी बाद लौटता। यों उन सब को विश्वास जमाकर एक दिन वहाँ से चम्पत होकर समुद्र तट पर आ गया। वहाँ से जहाज पर बैठकर अन्य जहाजों के साथ समुद्र के उस पार पहुँचा। वहाँ से उतरकर आर्य क्षेत्र में आया। वहाँ उसने मन ही मन दीक्षा लेने का निश्चय किया। देवों ने उसे रोका कि अभी तुम्हारे भोगावली कर्म बाकी हैं, इसलिए दीक्षा न लो। परन्तु विरक्त आर्द्रककुमार ने सोचा, महापुरुषों ने कहा है अस्ततन्द्र रतः पुभिनिर्वाणपदकांक्षिभिः । विधातव्यः समत्वेन राग-रषद्विषज्जयः ॥ -मोक्ष पद के अभिलाषी साधकों को तन्द्रा (आलस्य) रहित होकर समत्व के द्वारा राग-द्वषरूप शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना चाहिए। अतः मुझे भी रागरूप शत्रु को परास्त करने के लिए अभी से ही प्रयत्न करना चाहिए। यों सोचकर आद्रं ककुमार ने स्वयं ही मुनिदीक्षा ले ली। __ ग्राम-ग्राम विचरण करते हुए वह मुनि वसन्तपुर पहुँचा। नगर के बाहर यक्षालय में कायोत्सर्ग में स्थित होकर रहा। ठीक इसी समय उसकी पूर्वजन्म की पत्नी (जो देवलोक से च्यवन करके नगर के एक श्रेष्ठी की पुत्री बनी) श्रीमती नाम की कुमारी अपनी सखियों के साथ विहार-क्रीड़ा करने आ गई । 'आँखें मूंद कर जिस खम्भे को जो लड़की पकड़ ले, वही खम्भा उसके पति का प्रतीक माना जाएगा;' इस प्रकार का खेल वे लड़कियाँ खेल रही थीं। आंखें मूंदी हुई श्रीमती ने आद्रक मुनि के पर को खंभा समझकर पकड़ लिया। सहसा उसके मुंह से निकल पड़ा-“यह मेरा पति है।" देवों ने इसकी साक्षी रूप में स्वर्णमुद्राओं वृष्टि की। मुनि तो अपने पैर छुड़ाकर वहां से अन्यत्र चले गए। वह द्रव्य राजा लेने लगा तो देवों ने रोका । देवों के कथनानुसार वह सारा द्रव्य श्रीमती के पिता (श्रेष्ठी) के यहाँ अमानत के रूप में रखा गया । श्रीमती ने कहा-इस जन्म में तो मेरा यही पति रहेगा, दूसरा नहीं। परन्तु अपने पति (आर्द्र क मुनि) का पता लगाने हेतु उसने पिता से कहकर दानशाला खुलवा दी; जहां वह स्वयं अपने हाथों से दान देती थी। परन्तु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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