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________________ ११८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ । बारह वर्ष यों दान करते-करते हो गए आद्रंक मुनि नहीं आये। इसके पश्चात् मुनि विचरण करते-करते दैवयोग से उसी नगर में पधारे । सोचा-'नगर तो वही है, पर अब मुझे कौन पहचानेगा ? सब भूल गये होंगे।' यों सोचकर नगर में भिक्षा के लिए घूमते-घूमते अनायास श्रीमती के यहाँ ही पहुँच गये । श्रीमती भी आर्द्र कमुनि के पैर में पद्मचिह्न देखकर पहचान गई कि हो न हो, यही मेरे पतिदेव हैं। उसने अपने माता-पिता से कहा । श्रीमती के माता-पिता और राजा आदि प्रमुख लोगों ने आर्द्रक मुनि को उनकी पतिभक्ता पत्नी को स्वीकार करने का बहुत आग्रह किया। पहले तो उन्होंने आनाकानी की, लेकिन फिर सोचा कि अगर मैं इसे स्वीकार नहीं करूंगा तो यह (कन्या) मृत्यु का आलिंगन कर लेगी, तथा देवों ने भी मुझे दीक्षा लेते समय रोका था । अतः इसे स्वीकार कर लेना ही उचित है। यह समझकर आद्रक ने श्रीमती के साथ पाणिग्रहण कर लिया। कुछ ही अर्से बाद एक पुत्र हुआ। कुछ सयाना होने पर उसे पाठशाला में पढ़ने भेजा। अब आद्रककुमार को पुनः दीक्षा लेने को उद्यत हुए जान श्रीमती चर्खा लेकर सूत कातने लगी। जब बालक पाठशाला से आया तो उसने अपनी माँ को चर्खा कातते देख पूछा-“मां ! यह क्या कर रही हो?" श्रीमती ने कहा-"बेटा ! तू अभी छोटा बच्चा है । तेरे पिता हम सब को छोड़कर दीक्षा लेने जा रहे हैं । अत: मेरे लिए अब यह चरखा ही आजीविका का एकमात्र सहारा है।" बालक ने कहा-"मां ! तुम चिन्ता न करो। मैं अपने पिताजी को जाने नहीं दूंगा, बांधे रखूगा ।" यों कहकर मां ने सूत की जो आंटी बनाई थी, उसे लेकर वह पिता के पैर के चारों ओर सूत लपेटता जाता और कहता जाता-“देखो मां ! मैं पिताजी को बांधे रखता हूँ। जाने नहीं दूंगा।" बालक के रहस्यमय वचन सुनकर आद्रककुमार ने सोचा-'यदि मैं इस बच्चे को बिलखता एवं निराधार छोड़कर चला जाऊंगा तो इसके कोमल हृदय को आघात पहुँचेगा, इसे बहुत दुःख होगा । अतः सूत के जितने तार होंगे, उतने वर्ष और गृहस्थी में रहूँगा।' किसी उर्दू शायर ने ठीक ही कहा है इश्क के घाट किसी को न संभलते देखा। अच्छों अच्छों का यहां पांव फिसलते देखा। सूत के तार गिने तो पूरे बारह निकले। अतः आर्द्रककुमार ने श्रीमती से कहा-“मैं अभी बारह वर्ष और रहूँगा।" एक-एक करके १२ वर्ष पूर्ण हो गये। अतः उसने पुनः दीक्षा ले ली। आद्रककुमार के साथ जो ५०० सुभट थे, उन्होंने भी धर्मदेशना सुनकर संसार विरक्त होकर दीक्षा ले ली। तत्पश्चात् उन ५०० मुनियों सहित आद्रक मुनि ने राज Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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