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________________ ३३० आनन्द प्रवचन : भाग ११ कर लिया । मुझ पर उनका बड़ा स्नेह था। अनुग्रह पूर्वक बोले-"इच्छा हो तो मेरे साथ रहो । तुम्हारी उम्र भी सौ के करीब पहुँच रही है । यह मंजूर न हो तो लो ये हजार मुद्राएं और घर लौट जाओ।" मैं मूढ़ था । धन वैभव के व्यामोह ने मेरी बुद्धि पर पर्दा डाल दिया। मैं मुद्रायें लेकर अपने घर लौट आया। तुमने भी वही गलती की । बुढ़ापे में घड़ियाल जैसे क्षुद्र जल-जन्तु ने अपनी आत्म-शान्ति के लिए प्रबन्ध कर लिया, मगर तुम मनुष्य और मनुष्यों में भी श्रेष्ठ ब्राह्मण होकर भी धन की तृष्णा में अभी तक मूर्ख बनकर दर-दर भटक रहे हो। तुम्हारी यह मतिमन्दता और मूर्खता देखकर ही घड़ियाल हंसा था। इसीलिए महर्षि गौतम ने मूर्ख को तिर्यञ्च (पशु-पक्षी) के समान बतलाया है । तिर्यञ्च तो फिर भी सोच लेता है, पर मूर्ख मनुष्य अपना हिताहित नहीं सोच पाता। मूर्ख का संग, पशुसंगवत् वजित - मूर्ख मनुष्य पशु की तरह सत्संग करने योग्य नहीं होता । जैसे पशु के पास उपदेश ग्रहण करने या पशु का संग करने कोई नहीं जाता, वैसे ही मूर्ख मानव से उपदेश ग्रहण करने या उसका सत्संग करने कोई नहीं जाता। इसीलिए शास्त्र में जगहजगह मूर्ख-संग का निषेध किया है अलं बालस्स संगण -बाल (अज्ञानी) का संग मत करो। मूर्ख के साथ बोलने या बात-चीत करने से कोई फायदा नहीं होता। उलटा अहित या नुकसान ही अधिक होता है। क्योंकि मूर्ख यदि किसी दुर्व्यसन का गुलाम होगा, तो वह अपने पास बैठने वाले को उस दुर्व्यसन का चेप लगायेगा। अथवा वह बहुत बोलने या लड़ाई-झगड़ा करने की बीमारी लगा देगा। या वह सम्पर्क में आने वाले के साथ जरा-जरा-सी बात पर झगड़ा कर बैठेगा । इसीलिए विचारकों ने कहा है "मूर्ख से बोलना पत्थर से टकराना है । जैसे पत्थर से टकराने से पत्थर का कुछ नहीं बिगड़ता, टकराने वाले की ही हानि है, वैसे ही मूर्ख से बोलने से बोलने वाले का ही नुकसान है, मूर्ख का नहीं।" मूर्ख को यदि कोई हित की बात कहता है तो वह उसे पहले तो ग्रहण ही नहीं करता, यदि ग्रहण कर भी लेता है तो विपरीत रूप में करता है। इसीलिए तिलोक काव्य संग्रह में मूर्ख को उपदेश देने की व्यर्थता बताई हैसंतन को उपदेश मूढ़ को न लागे लेश, जाति अन्ध नर ताको कैसे दीसे आरसी। श्रोत नष्ट राग रीत, श्वान को फुलेलवास, जहेरी को सक्कर सो, लागे कटु सारसी ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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