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________________ मूर्ख और तियंच को समान मानो ३३१ गंगा-सी सलिल' बीच, खर को नहायबो ज्यों, गूंगजन आगे कछु पढ़ना है फारसी। कहत तिलोक तैसे मूरख को उपदेश, नीर को बिलोवे होवे मेहनत असारसी ।' भावार्थ स्पष्ट है । मूर्ख का संग चाणक्य नीति में भी वर्जित बताया है मूर्खस्तु परिहर्तव्यः प्रत्यक्षो द्विपदःपशुः । भिनत्ति वाक्यशल्येन, हृदयं कण्टकं यथा ॥ "मूर्ख मनुष्य प्रत्यक्ष दो पैर वाला पशु है । वह अदृश्य कांटे की तरह वचनशल्य से हृदय को बींध डालता है । अतः उसका परित्याग करना चाहिए । मूर्ख व्यक्ति कितना हठाग्रही होता है, एक उदाहरण लीजिए एक गच्छ में एक साधु लब्धिधारक थे । पर वे किसी बालक साधु या ग्लान वृद्ध साधु की सेवा नहीं करते थे । एक दिन उनको आचार्य ने कहा-"तू सेवा क्यों नहीं करता ?" तब वह साधु बोला-"मुझे कोई साधु कहते ही नहीं कि मेरी सेवा करो।" यह सुनकर आचार्य ने कहा-"तू चाहता है कि साधु मुझे प्रार्थना करें, यह तेरी भूल है। तू उस ज्ञान मदोन्मत्त मरुक ब्राह्मण की तरह गलती करता है। उस उस देश का राजा कार्तिक पूर्णिमा के दिन दान देता है, तब सभी दान लेने जाते हैं, लेकिन मरुक नहीं जाता। एक बार उसकी पत्नी ने उसे दान लेने जाने की बहुत प्रेरणा की तब मरुक बोला-एक तो शूद्र के हाथ से दान लेना, दूसरे, उसके घर सामने जाना, यह कैसे सम्भव है ? अतः जिसे सात पीढ़ी तक गर्ज हो वह यहाँ आकर दे जाये। अपने इस हठाग्रह के कारण वह जिंदगीभर दरिद्र रहा। इसी तरह तू भी भूल कर रहा है । अगर तू बाल, वृद्ध साधु की सेवा करे तो निर्जरा होगी। सेवा करने वाले तो और भी साधु हैं, पर तुझे लब्धि प्राप्त है, और फिर वयावत्य किये बिना यम, नियम सब निष्फल हैं ।" गुरु के ऐसा कहने पर वह साधु बोला-"अगर वयावृत्य करना आप अच्छा समझते तो, आप स्वयं वैयावृत्य क्यों नहीं करते ?" आचार्य ने कहा-“तू उस बन्दर की तरह मूर्ख है, जो बया पक्षी के द्वारा हित की बात कहने पर भड़क उठा और अंटशंट गालियाँ बकता हुआ बया का घोंसला तोड़कर चला गया। इसी प्रकार तू मुझे वैयावृत्य करने की बात कहता है। मेरे समक्ष निर्जरा के अनेक उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य हैं।" __ अतः मूर्ख मनुष्य बन्दर के समान उद्दण्ड होता है। उसे सीख देना अपनी ही गांठ की गंवाना है । अमृत काव्य संग्रह में ठीक ही कहा है १. तिलोक काव्य संग्रह, तृतीय बावनी, गाथा५१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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