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________________ मानव प्रवचन : भाग ११ सीख नहीं दीजे हठग्राही मूढ़ प्राणिन कू, सार नहीं होवे जैसे पानी को मथाए से। खर को चन्दन लेप, मुकुट भूषण तन, होवत निकाम जैसे ओसबिन्दु बाए से ॥ मर्कट के गले हार शोभादार बहु, तोरी के देवत फैक फँद जानी काए से । अमीरिख कहे नहीं माने उपकार मन, होवत है बैरी वात हित की बताए से ।। पशुओं को भी मात करने वाली मूर्खताएं ये सब मूर्खतायें पशुओं को भी मात कर देती हैं । पशु-पक्षियों में भी इतनी तो बुद्धि होती है कि वे अपनी शक्ति और क्षमता को जानकर दौड़ लगाते हैं । गाय, भैंस. बैल, घोड़ा आदि अपनी शक्ति को जानकर ही भागते-दौड़ते हैं, पक्षी भी अपनी शक्ति के अनुसार आकाश में उड़ते हैं, पर मूर्ख तो मूर्खता के आवेश में अपनी शक्ति को भी भूल जाते हैं, उन्हें यह भान ही नहीं रहता कि मेरी कितनी शक्ति है ? मैं किससे बात कर रहा हूँ ? वह ऐसे नीच कार्य करने पर उतारू हो जायेगा, जिसे करते हुए पशु भी शर्माते हैं, और फिर उस नीच कार्य को करते हुए अपनी प्रतिष्ठा भी बरकरार रखना चाहेगा। उस नीच कार्य को करने के लिए वह अपने शत्रु के साथ मित्रता करेगा और मित्रों के साथ द्वेष-भाव रखेगा। इसका कारण यह है कि जो हितैषी मित्र होते हैं, वे उसके मूर्खतापूर्ण कार्यों को करने में रोकटोक करते हैं, उसे नहीं करने को समझाते हैं, वैसा गलत काम करने पर वे उसके साथ भित्रता तोड़ने की धमकी देते हैं, सच्ची और साफ बात करते हैं, इस कारण सच्चे हितैषी मित्र उसे शत्रु-से लगते हैं, और जो उसके शत्रु हैं, वे उसकी जड़ काटने को तत्पर रहते हैं, इसलिए वे उसे उकसाते और चढ़ाते रहते हैं। यही उसकी सबसे बड़ी मूर्खता है। पशुओं में इतनी मूर्खता तो होती है कि वे विरोधी से भिड़ने का साहस कर बैठते हैं, चाहे उनमें शक्ति न हो । एक दुर्बल कुत्ता अपनी गली में आने वाले दूसरी जगह के कुत्ते को विरोधी एवं पराया मानकर उससे भिड़ जाता है, और उसे परेशान करके अपनी गली से बाहर निकालकर ही दम लेता है। क्योंकि कुत्ते में इतनी बुद्धि नहीं होती कि यह मेरा जाति भाई है, इससे क्यों लडू-भिडूं? मनुष्य में तो इतना सोचने की बुद्धि होती है, वह तो अपने-पराये को जल्दी पहचान सकता है, परन्तु मूर्ख मनुष्य पशु के समान अपने-पराये का भान भूल जाता है । इस तरह स्वयं निर्बल होते हुए भी बलवान के साथ वैर-विरोध मोल ले लेता है। पशु में इतना तो सामान्य ज्ञान होता है, जिससे वह अपने मालिक को पहचानता है, और उसका कार्य अपनी शक्ति भर वफादारीपूर्वक करता है, अपने से होने वाला काम वह दूसरों पर नहीं डालता, वह मेहनत किये बिना अपने मालिक से खाना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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