SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२८ मानन्द प्रवचन : भाग ११ भ्रमण करता है। वहाँ से निकलकर (स्थावरत्व से मुक्त होकर) त्रसत्व (त्रसपर्याय) अत्यन्त कष्ट से प्राप्त होने के कारण चिन्तामणि प्राप्त करने की तरह दुर्लभ है।' स्थावर पर्याय में से निकलकर प्रसपर्याय प्राप्त करने पर भी कदाचित वहाँ भी द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियरूप विकलेन्द्रियत्व को प्राप्त करले तो भी वहाँ उत्कृष्टतः करोड़ पूर्व तक जीव रहता है । वहाँ (विकलेन्द्रिय) से निकलकर पञ्चेन्द्रियत्व प्राप्त करना महाकष्टकारक होने से अत्यन्त दुर्लभ है; क्योंकि विकलेन्द्रिय में से फिर स्थावर काय में उत्पन्न हो जाये तो वह जीव वहाँ फिर बहुत काल तक उस पर्याय में रहता है, इस दृष्टि से पंचेन्द्रियत्व की प्राप्ति अति दुर्लभ बताई है। विकलेन्द्रियत्रय में से निकलकर कदाचित् जीव पंचेन्द्रिय हो जाये तब भी वह असंज्ञी-मन से रहित होता है; असंज्ञी जीव स्व-पर का भेद नहीं जानता यानी संज्ञीपन दुर्लभ होता है। कदाचित् संज्ञी-मनसहित-भी हो जाये तो वह तिर्यच होता है अर्थात् सिंह, सर्प, मत्स्य, उल्लू आदि होता है जिसके परिणाम निरन्तर पापरूप रहते हैं। कर तिर्यच होता है तो वह जीव तीव्र अशुभ परिणामवश अशुभलेश्या सहित मरकर नरक में-महादुःखदायक एवं भयानक नरक में जाता है; जहाँ शारीरिक एवं मानसिक प्रचुर तीव्रतर दुःख भोगता है। वह नरक में से निकलकर तियंचगति में उत्पन्न होता है। वहाँ भी पापकर्म के उदय से जीव अनेक प्रकार के दुःख सहन करता है । तियंच में से निकलकर मनुष्य गति पाना अतीव दुलर्भ है जैसे चौराहे (चतुष्पथ) के बीच में किसी का रत्न गिर जाए तो महाभाग्य हो तभी वह हाथ में भाता है, इसी प्रकार चार गतियों के बीच में मनुष्यत्व (मनुष्यजन्म) रूपी रत्न हाथ आना दुर्लभ है । फिर ऐसा दुर्लभ मनुष्यशरीर पाकर भी जीव मिथ्यादृष्टि होकर पापकर्म उपार्जित करता है । अर्थात्-कदाचित् बह जीव मनुष्य भी हो जाये, तब म्लेच्छखण्ड (अनार्य क्षेत्र) में जन्म लेकर मिथ्यादृष्टियों का संग पाकर फिर वह पापकम करता है।' कदाचित् मनुष्य-पर्याय पाकर आर्यक्षेत्र भी पा जाये फिर भी उत्तम गोत्र एवं कुल प्राप्त नहीं कर पाता। कदाचित पुण्य की प्रबलता से उत्तमकुल में जन्म ले भो ले तो भी निधन (दरिद्र) होता है, उसके हाथ से कोई भी सुकृत्य नहीं होता, इस कारण पाप में ही जीवन बिताता है। १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, श्लोक २८४ ३. वही, २८७ ५. वही, २८६ ७. वही, लोक २६१ २. वही, श्लोक २८६ ४. वही, २८८ ६. वही, श्लोक २६. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy