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________________ बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं-१ १२७ रत्नत्रय-लाम की दुर्लभता : क्यों ? बोधिलाभ का प्रथम अर्थ है-रत्नत्रय का लाभ । जीवन का आध्यात्मिक विकास बोधि या सम्बोधि की प्राप्ति के बाद सहज ही होने लगता है । बोधि की प्राप्ति के बिना कोई भी व्यक्ति यह चाहे कि मैं वास्तविक आत्मोन्नति या आध्यात्मिक विकास कर लू', यह असम्भव है। इस दृष्टि से बोध शब्द से यों तो सम्यक्त्वसहित सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र-ये तीनों ही सम्यक रूप में गृहीत होते हैं। इन्हीं को जैनशास्त्रों में रत्नत्रय कहा गया है, मोक्षमार्ग भी। इसलिए बोधि को हम मोक्षमार्ग या मोक्षद्वार कह सकते हैं। मोक्ष में प्रवेश करने या मोक्ष तक जाने के लिए यदि द्वार या मार्ग न मिले तो साधक कितना भटक सकता है, हैरान हो सकता है ? इसकी कल्पना सहज ही आप कर सकते हैं । आध्यात्मिक विकास का लाभ मानवजीवन में सबसे बड़ा लाभ है। ___ क्या आप बता सकते हैं कि इस जीव (आत्मा) को रत्नत्रयरूप बोधि कब प्राप्त होती है ? कितनी योग्यता हो, तब ऐसा बोधिलाभ होता है ? जैसे-किसी व्यक्ति को एम०ए० या एल-एल० बी० की डिग्री प्राप्त करनी हो तो उसके लिए पाठ्यक्रमानुसार उतना अध्ययन करना और परीक्षा देकर उत्तीर्ण होना आवश्यक है वैसे ही रत्नत्रयरूप बोधिलाभ के लिए भी उतनी योग्यता हासिल करना आवश्यक है। जैन सिद्धान्त की भाषा में कहूँ तो विभिन्न गतियों और योनियों में भटकते-भटकते एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक उत्तरोत्तर विकास करते जब पंचेन्द्रिय और उसमें भी संज्ञी पंचेन्द्रिय, साथ ही मनुष्य योनि में आर्यक्षेत्र, उत्तमकुल, पंचेन्द्रियपूर्णता, नीरोगता, दीर्घायुष्कता, आदि सब घाटियाँ पार होने के बाद भी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति, फिर सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति । कितना दुष्कर है, बोधि को पाना । आकाश के तारे तोड़ लाने की अपेक्षा भी बोधि पाना दुर्लभतर है । 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' नामक ग्रन्थ में बोधिदुर्लभ-अनुप्रक्षा (भावना) का वर्णन करते हुए रत्नत्रयरूप बोधि क्यों दुर्लभ है, यह स्पष्ट रूप से बताया गया है यह जीव (सर्वप्रथम) अनादिकाल से लेकर अनन्तकाल तक तो निगोद (अनन्तकायिक) जीवों में रहता है। वहाँ से निकलकर कदाचित् पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय जीव का पर्याय प्राप्त करता है। निगोद से पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रियं जीव-पर्याय प्राप्त करना भी दुर्लभ है । वहाँ पृथ्वीकाय आदि में भी सूक्ष्म और बादर कायों में असंख्येय काल तक जीव १. नित्यनिगोद में अनादिकाल से अनन्तकाल तक जीव का वास होता है। वहाँ एक ही शरीर में अनन्तानन्त जीव एक साथ ही आहार, श्वासोच्छ्वास और जीवनमरण करते हैं । उनका आयुष्य एक श्वास के १८वें भाग जितना है। -संपादक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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