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६७. बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं-१
प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ।
इस विश्व में आज लगभग तीन अरब मनुष्य होंगे । उनमें से अधिकांश लाभदृष्टि वाले लोग होंगे । चारों ओर नजर डालते हैं तो प्रायः फायदावादी' लोग दृष्टिगोचर होते हैं। फायदावादी लोगों की एक नीति होती है कि वे अच्छी उपलब्धि के लिए पुरुषार्थ चाहें करें या न करें, पर पहला सवाल उनके दिमाग में यही उठता है कि इस काम से क्या फायदा होगा ? जैसे रोगी के मन में वैद्य या डॉक्टर की दवा लेने के साथ ही यह विकल्प उठा करता है कि इस दवा से लाभ होगा या नहीं ? वैसे ही फायदावादी या लाभाकांक्षी लोगों की सबसे पहली दृष्टि लाभ पर ही पड़ती है । आपको भी शायद व्यापारी होने के नाते लाभ की बात ही सुहाती होगी। बिना लाभ के कौन-सी बात और कौन-सा व्यापार ?
हाँ, तो महर्षि गौतम भी आपको इस जीवनसूत्र में सबसे बड़े लाभ की बात बता रहे हैं । गौतमकुलक का यह ५४वाँ जीवनसूत्र है। इसका अक्षरशरीर इस प्रकार है
न बोहिलाभा परमत्थि लामो -बोधिलाभ से बढ़कर संसार में कोई लाभ नहीं। बोधिलाभ के मुख्य अर्थ
व्यापक दृष्टि से बोधिलाभ के कई अर्थ प्रतिफलित होते हैं । जैन शास्त्रों का मंथन करने के पश्चात् हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि बोधिलाभ जैनधर्म का विशिष्ट पारिभाषिक शब्द है। इसी सन्दर्भ में बोधिलाभ के यहाँ पाँच अर्थ प्रतिफलित होते हैं
(१) सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का लाभ (२) आत्मबुद्धि (निश्चय सम्यग्दृष्टि) का लाभ (३) सम्यग्दर्शन या सम्यग्दृष्टि का लाभ (४) व्यवहार सम्यग्दृष्टि का लाभ (५) सद्बोध (सच्ची समझ) का लाभ
अब हम क्रमशः इनके अर्थ और साथ ही इनकी दुर्लभता का वर्णन कर रहे हैं।
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