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बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं-१
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.. कदाचित् धनाढ्य भी हो जाये तब भी इन्द्रियों की परिपूर्णता पाना अतीव दुर्लभ है । अगर इन्द्रियाँ भी परिपूर्ण मिल जायें तो भी शरीर का नीरोग रहना दुर्लभ है; किसी न किसी रोग से शरीर ग्रस्त रहेगा।'
कदाचित् शरीर नीरोग भी रहे तो भी दीर्घायु प्राप्त नहीं कर पाता। अथवा कदाचित् दीर्घायु भी पा जाये, तब भी शील (भद्रस्वभाव) नहीं प्राप्त कर पाता, इस कारण उत्तमचरित्र बनना कठिन होता है ।
कदाचित् उत्तमशील (सदाचार) से युक्त हो भी जाये, तब भी साधुपुरुषों की संगति नहीं प्राप्त कर पाता। उसे भी कदाचित् पा ले तो भी वहां सम्यक्त्वसम्यग्दर्शन पाना अतीव दुर्लभ है।
कदाचित् सम्यक्त्व प्राप्त हो भी जाये, किन्तु फिर भी यह जीव चारित्र ग्रहण नहीं कर पाता । कदाचित् चारित्र भी ग्रहण कर ले तो भी उसका निरतिचार (निर्दोष) रूप से पालन नहीं कर सकता।
कदाचित् वह जीव रत्नत्रय भी प्राप्त कर ले, किन्तु उसे पाकर भी तीव्र कषाय करे तो उसका रत्नत्रय नष्ट हो जाता है। इस कारण वह दुर्गति में जाता है।
जैसे महासमुद्र में गिरा हुआ रत्न पुनः प्राप्त होना दुर्लभ होता है, वैसे ही यह मनुष्य-जन्म पाना दुर्लभ है, यह दृढ़ विचार करके मिथ्यात्व और कषाय को छोड़ो।
कदाचित् कोई जीव दुर्लभ मनुष्य-जन्म पाकर शुभ भावों से देवत्व भी प्राप्त कर ले, तो भी वहाँ चारित्र और तप प्राप्त नहीं कर सकता, तथा देशव्रतश्रावकव्रत तथा शीलवत (तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत) को लेशमात्र भी प्राप्त नहीं कर पाता।
हे भव्यजीव ! इस मनुष्यगति में ही तपश्चरण हो सकता है, मनुष्यगति में ही समस्त महाव्रत-पालन हो सकता है, इस मनुष्यगति में ही धर्मध्यान-शुक्लध्यान होता है तथा मनुष्यगति में ही निर्वाण-मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।
इस प्रकार का दुर्लभ मनुष्य-जन्म पाकर जो मनुष्य इन्द्रिय-विषयों में रमण करता है, वह इस दिव्य अमूल्य रत्न को पाकर भस्म (राख) के लिए इसे जला डालता है।
१. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, २६२ ३. वही, २६४ ५. वही, २६६ ७. वही, २६८ ६. वही, ३००
२. वही, २६३ ४. वही, २६५ ६. वही, २६७ ८. वही, २६६
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