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आनन्द प्रवचन : भाग ११
- इस प्रकार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय (बोधि) को दुर्लभातिदुर्लभ जानकर तथा इन सब दुर्लभताओं को समझकर इस संसार में रत्नत्रयरूप बोधि का महान् आदर करो, उसका आचरण करो।' : ये हैं रत्नत्रयलाभ की दुर्लभता में कारण ! सांसारिक भौतिक पदार्थों का मिलना इतना दुर्लभ नहीं है, जितना रत्नत्रय की प्राप्ति में निमित्तभूत मानवजन्म आदि का मिलना दुर्लभ है। आत्मबुद्धि की दुर्लभता : क्या और कैसे ?
बोधिलाभ का दूसरा अर्थ-आत्मबुद्धि का लाभ है । आत्मबुद्धि के दो अर्थ हो सकते हैं
(१) विश्व के सभी प्राणियों को आत्मीयता-आत्मौपम्य दृष्टि से देखने की बुद्धि ।
- (२) अपनी आत्मा को ही सर्वस्व समझकर उसे ही सभी पहलुओं से देखने की बुद्धि । अर्थात्- "मैं कौन हूँ ? क्यों हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? किसका हूँ ? किसलिए हूँ ? किस पर आधारित हूँ ? मेरा लक्ष्य क्या है ? मुझे कहाँ पहुँचना है ? मेरी आत्मा अभी कैसी परिस्थिति में है ? विषय और कषाय का घेरा कितना तोड़ा है, मेरी आत्मा ने ? मेरी आत्मशुद्धि में साधक-बाधक कौन-कौन-से तत्त्व हैं ? शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि मेरे आत्मविकास में कहाँ-कहाँ कितनी मात्रा में बाधक बनते हैं, उन्हें साधक कैसे बनाया जा सकता है ? हर्ष-शोक, हानि-लाभ, सुख-दुःख, शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वों में आत्मावबोध या स्वरूपरमणता में मैं कितना टिक पाता हूँ?" इस प्रकार की आत्मबुद्धि होना वस्तुतः बोधिलाभ है ।
ऐसी आत्मबुद्धि इसलिये दुर्लभ है कि पहले बताये गये कारणों की दुर्लभता के साथ-साथ आत्मबुद्धि प्राप्त होने में राग, द्वेष, मोह, आसक्ति, पूर्वाग्रह, हठाग्रह, घृणा, ईर्ष्या आदि बाधक कारण आड़े आ जाते हैं, जिनके कारण आत्मबुद्धि की प्राप्ति, और प्राप्ति के बाद स्थिरता अत्यन्त दुर्लभ है । कई बार साधक बहिरात्मा बनकर अपने शरीर, मन, इन्द्रियविषयों, भौतिक पदार्थों में अत्यधिक लुब्ध हो जाता है । इसी कारण आत्मबुद्धि दुर्लभ है। मनुष्यजन्म, आर्यक्षेत्र, उत्तभकुल, पंचेन्द्रिय-परिपूर्णता, दीर्घायुष्कता, उत्तम सत्संग आदि कई दुर्लभ घाटियों को पार करने के बाद आत्मबुद्धि का पाना और उसे टिकाना कितना दुर्लभतर है ? यह आप समझ सकते हैं ।
आत्मबुद्धि जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है । इससे बड़ी उपलब्धि संसार में और कोई नहीं हो सकती। आज अधिकांश लोगों को मानव-जीवन की अन्य सामान्य
१. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, श्लोक ३०१
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