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बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं-१
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उपलब्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं, तब वे वहीं अटककर रह जाते हैं। अपने शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव पदार्थों की मोहमाया में, ममता-मूर्छा में अटककर, अपने जीवन को विषयभोगों, संयोगों-वियोगों, महत्त्वाकांक्षाओं, प्रदर्शनचेष्टाओं, सुखसुविधाओं को पाने की योजनाओं, और ऐसी ही अन्य गतिविधियों या विडम्बनाओं में नष्ट कर देता है । आत्मबुद्धि की सम्प्राप्ति तक नहीं पहुँच पाता।
आत्मबुद्धिलाभविहीन व्यक्ति शरीर की साज-सज्जा, वस्त्राभूषण, स्वादिष्ट भोजन, ठाठ-बाट, सुख-सामग्री, डिग्री, पद, सत्ता, धन-सम्पत्ति, महल, प्रसिद्धि और वाहवाही की चकाचौंध में अपना अमूल्य समय, श्रम, शक्ति और मनोयोग बर्बाद करता रहता है। आत्मबुद्धि के बोध से हीन मानव अपने आपको शरीर मानकर सांसारिक सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों में उद्विग्न हो उठता है। उसकी हर परिस्थिति आशंका, असन्तोष, अशान्ति और उद्विग्नता से भरी रहती है । वह आत्मबुद्धि की दृष्टि से सही सोचकर सही निर्णय नहीं कर पाता। आत्मबुद्धि के अभाव में जीवन कितना उन्मार्गगामी हो जाता है, यह बात किसी से छिपी नहीं है।
आत्मबुद्धि के होने पर ही आत्मबोध होता है। आत्मबोध से लाभान्वित व्यक्ति लोकमूढ़ता में नहीं फंसता । वह अन्धकार का परित्याग करके प्रकाश को वरण करता है । वह अपने आपको आत्मा के रूप में अनुभव करता है, और शरीर को एक उपकरण मात्र । उसे सांसारिक पदार्थों का लोभ और मोह, मूर्खता ही नजर आती है । आत्मबोधयुक्त विवेकी गृहस्थ अपने परिवार को सुसंस्कारी, सुविकसित, मिष्ठ और कर्तव्यपरायण बनाने के लिये प्रयत्नशील रहता है। शरीर और मन को वह इन्द्रियों की दासता और तृष्णापूर्ति में न लगाकर, शरीर को आत्मगौरव बढ़ाने में और मन को आत्मकल्याण और आत्मचिन्तन में लगाये रखता है।
आज हम दावे के साथ कह सकते हैं कि पहले बताई हुई दुर्लभताओं की घाटियां पार कर लेने के बावजूद भी आत्मबुद्धि का अभाव प्रायः सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रहा है, अन्यथा जनता में इतनी अशान्ति, बेचैनी, उद्विग्नता, शरीरासक्ति, धनमोह, सुख-सुविधाओं की वृद्धि का राग, त्याग-वैराग्य की कमी आदि न होती। वर्तमान युग के मानव का हृदय भी आत्मबुद्धि के अभाव में अन्धकाराच्छन्न है, उसे कोई यथार्थ स्थायी मार्ग नहीं सूझता। 'आत्मबुद्धिः सुखायैव' जो कहा है, वह बिलकुल यथार्थ है । आज का मानव प्रायः भौतिकबुद्धिपरायण हो रहा है। आत्मबुद्धि उसके लिए हिमालय की चोटी पर चढ़ने की तरह अत्यन्त दूरातिदूर और दुर्लभतर होती जा रही है। .
ऐसी दुर्लभ आत्म-दृष्टि प्राप्त न होने पर कैसी स्थिति हो जाती है, इसे आचार्य बताते हैं
वपुहं धनं दारा पुत्रमित्राणि शत्रवः । सर्वथाऽन्यस्वभावानि मूढ़ः स्वानि प्रपद्यते ॥
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