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आनन्द प्रवचन : भाग ११
-शरीर, गृह, धन, पत्नी, पुत्र, मित्र, शत्रु-ये सब निश्चयतः सर्वथा अन्य स्वभाव के होते हैं, परन्तु आत्मबुद्धिहीन मूढ़ इन्हें अपने समझता है। जिनकी दृष्टि में आत्मबुद्धि बस जाती है, वे सारे संसार का धन दे देने पर भी इस बोधिलाभ को नहीं छोड़ते । क्योंकि वे जानते हैं
धनं भवेदेकभवे सुखार्थ, भवे-भवेऽनन्तसुखी सुदृष्टिः । धनेन हीनोऽपि धनी मनुष्यो यस्यास्ति सम्यक्त्वधनं महाय्यं ॥
-अर्थात् धन कदाचित् एक भव में सुख दे सकता है, परन्तु सुदृष्टि (आत्मबुद्धिरूपी बोधि) धन जिसके पास है, वह जन्म-जन्म में अनन्तसुखयुक्त है। जिसके पास सम्यक्त्व (बोधि) रूपी बहुमूल्य धन है, वह भौतिक धन से रहित होने पर भी महाधनिक है।
महात्मा गांधीजी के पास कौन-सा धन था ? उनसे भी बढ़कर वैभवशाली तब भी दुनिया में थे, अब भी हैं, लेकिन महात्मा गांधीजी के पास सत्यनिष्ठा थी, जिसे प्राप्त करना हर एक के लिये दुष्कर, दुर्लभ है। महात्मा गांधीजी के लिये विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा था-"गांधीजी में सबसे बड़ी विशेषता सत्यनिष्ठा है।" जिसे हम जैनपरिभाषा में सुदृष्टि (बोधि) कह सकते हैं। वे भौतिक वैभव के प्रति अनासक्त थे। "अगर अमेरिका की सारी सम्पत्ति उनके समक्ष रख दी जाये और उनसे सत्य का परित्याग करने के लिए कहा जाये तो गांधीजी उस विशाल सम्पत्ति को ठुकरा देंगे, मगर सत्य का परित्याग नहीं करेंगे।"
कवि सम्राट रवीन्द्रनाथ के इन उद्गारों से सम्यग्दृष्टि के विचार और आचार की दृढ़ता की स्पष्ट झलक मालूम हो जाती है।
आत्मबुद्धिरूप बोधि की दुर्लभता के लिए जैन इतिहास के प्राचीन पृष्ठ मैं आप सामने खोल रहा हूँ
भगवान् ऋषभदेव जब मुनिदीक्षा लेने लगे थे, उससे पूर्व उन्होंने जनता को असि, मसि, कृषि—ये तीन मुख्य कर्तव्य सिखाये । उसे स्वावलम्बी बनने का यथार्थ पाठ सिखाया। अपने सबसे ज्येष्ठ पुत्र भरत को उन्होंने अयोध्या का राज्य दिया और दूसरे पुत्र बाहुबली को तक्षशिला का राज्य सौंपा। शेष ६८ पुत्रों को उन्होंने विभिन्न प्रदेशों का राज्य सौंप दिया। सबको राजनीति और राज्य-व्यवस्था सिखाई और कहा-"राज्य प्रजा की विशिष्ट सेवा के लिए स्वीकार किया जाता है, न कि भोग-विलास के लिए । राजा प्रजा की रक्षा के लिए होता है।" इस प्रकार भगवान् ने राज-पाट तथा धन-धाम, कुटुम्ब-कबीला आदि सबका परित्याग करके स्व-परकल्याण के लिए संयम ग्रहण किया।
भगवान ऋषभदेव के संयम ग्रहण करने के बाद उनके सबसे बड़े पुत्र भरत के यहाँ चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। भरत समग्र भारतवर्ष को एक ही शासन के अन्तर्गत करना चाहते थे । अतएव उन्होंने अन्यान्य राजाओं पर तो अपना शासन स्थापित कर
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