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चुगलखोर का संग बुरा है
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अब तुम परस्पर क्षमायाचना करके शान्त हो जाओ।" इस प्रकार चन्द्रकान्त सेठ और नर्मदा का झगड़ा पड़ौसिनों ने शान्त किया। पति-पत्नी दोनों पूर्ववत् प्रेमसरोवर में डुबकी लगाने लगे । भविष्य में वे ऐसे चुगलखोरों से सावधान रहने लगे। चुगलखोर को मुंह लगाना अपना ही अनिष्ट करना है।
चुगलखोरी : स्वरूप, परिणाम और स्थान चूगलखोरी को संस्कृत भाषा में पैशुन्य कहते हैं। पैशुन्य १८ पापस्थानकों में से एक पापस्थान है। पाप का सेवन साँप के स्पर्श से भी बढ़कर है। साँप के स्पर्श से तो कदाचित् वह काट खाये तो विष चढ़ जाने से मृत्यु हो जाये, परन्तु पाप के सेवन से एक जन्म की ही मृत्यु नहीं, जन्म-जन्मान्तर तक मृत्यु प्राप्त होती है । चुगलखोरी का व्यसन मौखर्य नामक अनर्थदण्ड का एक रूप है । चुगलखोरी करने वाले व्यक्ति को भगवान के यहाँ तो कोई स्थान नहीं है। जो व्यक्ति चुगलखोरी करता है, वह एक तरह से पीठ का मांस खाता है। इसका तात्पर्य यह है कि वह व्यक्ति के सामने तो कुछ नहीं कहता, न उसे प्रेम से एकान्त में निवेदन करता है, किन्तु उसके पीठ पीछेपरोक्ष में, उसके गुणों को अवगुण का रूप देकर उसके विषय में कहता रहता है। इसीलिये भगवान महावीर ने साधकों से कहा
पिट्ठिमंसं न खाइज्जा -'पीठ का मांस मत खाओ;' यानी पीठ पीछे किसी के दोषों का कीर्तन मत करो।
जो व्यक्ति चुगलखोरी करता है, उसे भगवान महावीर के संघ में कोई स्थान नहीं है; क्योंकि पैशुन्य एक प्रकार की हिंसा है, और हिंसा को साधु-संघ में तो कतई स्थान नहीं है, और श्रावक (प्रशस्त गृहस्थ) संघ में भी संकल्पी हिंसा को कोई स्थान नहीं है।
ईसाईधर्म में एक प्रसिद्ध सन्त हो गये हैं संत ऑगस्टिन। वे किसी की निन्दा सुनना पसंद नहीं करते थे । उन्होंने अपने मकान की दीवारों पर अंकित करवा दिया था कि-"चुगलखोर के लिए यहाँ कोई स्थान नहीं है, यहाँ सिर्फ सच्चाई और अनुभूति का राज्य है।"
____ एक दिन कुछ मित्र उनसे मिलने आये । वार्तालाप में वे अपने एक साथी की निन्दा करने लगे, जो उस समय वहाँ उपस्थित नहीं था।
संत आगस्टिन ने मधुर शब्दों में उपालम्भ देते हुए कहा-“मित्रो ! आपको या तो यह बात बन्द करनी होगी, या मुझे दीवार पर लिखे हुए ये शब्द मिटाने
होंगे।"
उन्होंने उसी समय निन्दा करना बन्द कर दिया।
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