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________________ २१६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ चुगलखोरी : परनिन्दा आदि में शक्ति का अपव्यय वास्तव में देखा जाये तो चुगलखोर या पिशुन निन्दक होता है। वह दूसरों की निन्दा करके अपना उत्कर्ष बढ़ाना चाहता है । चुगलखोर की सारी शक्तियाँ निन्दा, छिद्रान्वेषण, कुढ़न, द्वेष, असन्तोप, ईर्ष्या, प्रतिशोध, दोषारोपण आदि में ही नष्ट होती रहती हैं । वह दूसरों पर दोषारोपण करके अपने द्वष और रोष को बढ़ाता रहता है । चुगलखोर अपने अन्दर रहे हुए दोषों को नहीं टटोलता, वह दूसरे के दोषों को ही टटोलता रहता है । दूसरों की निन्दा और चुगली करना अपनी तुच्छता प्रकट करना है । एक विचारक ने कहा "दुनिया में निन्दा जैसा कोई रस नहीं है, लेकिन वह परनिन्दा सुनने में है, अपनी सुनने में नहीं।” हजरत मुहम्मद से एक नमाजी ने कहा-“मैं नमाज पढ़ रहा था, तब मेरे पांच भाई गप्पें लड़ा रहे थे। मैंने समझाया तो वे उल्टे मेरे पास आकर हुक्के की गुड़गुड़ाहट करते हुए मेरी मजाक करने लगे। मैंने नमाज में उनकी शिकायत खुदा से की।" हजरत मुहम्मद ने कहा-"नमाज में किसी की निन्दा (शिकायत) नहीं की जा सकती । तुमने यह धर्मविरुद्ध कार्य किया है।" कुराने शरीफ में भी इसका स्पष्ट निषेध किया गया है व ला यग्तब वा' दकुम वादन् । -तुम में से कोई किसी की पीठ पीछे निन्दा न करें। परनिन्दा से मनुष्य की इज्जत बढ़ती नहीं, उससे उसका मुंह दोषयुक्त बभता है, वाणी असत्यमिश्रित बनती है। यह एक मीठा जहर है, जिससे मनुष्य की आत्मा धीरे-धीरे विकास के शून्य बिन्दु पर आ जाती है । परनिन्दा बहुत बड़ा पाप है, इससे हिंसा, असत्य आदि कई पाप पनपते हैं। यही कारण है कि यूरोप में एक 'पेडलोक' (निन्दा निषेधक) सोसायटी (कमेटी) है । उसका सदस्य न तो किसी की निन्दा कर सकता है, और न ही सुन सकता है। इस सोसायटी का सदस्य बनते समय तीन बार ताला खोलकर बन्द करना पड़ता है। उसका रहस्य यह है कि वह यह प्रतिज्ञा करता है कि “मैं आज से मन से, वचन से और कर्म से किसी की निन्दा नहीं करूगा।" चीन के महान् दार्शनिक कन्फ्यूशियस ने एक बार कहा था-"अगर आपके अपने द्वार की सीढ़ियाँ मैली हैं तो अपने पड़ौसी की छत पर पड़ी हुई गन्दगी के लिये उलाहना मत दीजिये ।" भावार्थ यह है अगर आपका जीवन गन्दा है तो आप दूसरों के जीवन में पड़ी हुई गन्दगी को कैसे साफ कर सकेंगे ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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