SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अविद्यावान पुरुष : सदा असेव्य १७६ के स्थान पर स्थल और स्थल को स्थान पर जल दिखाई देता है । इसी प्रकार इसमें पद-पद पर भ्रान्त होने वाले अविद्यावानों का उपहास होता है । अविद्याग्रस्त लोगों को इस मायानगरी में हर चीज के दो रूप दिखाई पड़ते हैं। इसका बाह्यरूप कुछ है, और भीतरी रूप कुछ है । वास्तविकता को विद्यावान जानता है, अविद्यावान नहीं । इसी कारण वह बार-बार धोखा खाता है। धोखा खाकर भी मिथ्यात्व एवं मोहनीयवश संभल नहीं पाता। पदार्थों के बाह्य रूप और सौन्दर्य पर लुब्ध होकर अपनेआपको विनाश के गर्त में झौंक देता है । हडडी, मांस एवं मलमूत्र से भरे दुर्गन्ध भरे घड़े पर लगी हुई चमकती चमड़ी अविद्याग्रस्त व्यक्तियों को महाभ्रम में डाल देती है। किन्तु विद्यावान विवेकी बनकर इसकी वास्तविकता और क्षणभंगुरता को समझ लेता है । वह इसके चक्कर में नहीं फंसता । अविद्याग्रस्त पट्टाचारा अविद्याजनित दुःखों का अनुभव कर चुकी थी। अतः विद्यावान तथागत की शरण में आकर वह विद्या का महाप्रकाश पाकर ऐसी संभली कि फिर अविद्या के दुश्चक्र में नहीं फंसी। यही उपदेश समाधिशतक में दिया गया है तद् ब्रूयात् तत्परं पृच्छेत् तदिच्छेत् तत्परो भवेत् । येनाविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् ॥५३॥ -वही बोलना चाहिये, वही दूसरों से पूछना चाहिए, उसी की इच्छा करनी चाहिए एवं उसी में तत्पर रहना चाहिये, जिनसे अपना अविद्यामय रूप विद्यामय बन जाये। विद्यावान और अविद्यावान की परख विद्यावान और अविद्यावान की परख केवल पढ़े-लिखे और अनपढ़ होने से ही नहीं हो जाती । केवल पढ़-लिखे मनुष्य, जिनमें बौद्धिक प्रतिभा नहीं होतो, या सात्त्विक व्यवसायात्मिका बुद्धि भी नहीं होती, न आध्यात्मिक जिज्ञासा होती है, उन्हें विद्यावान नहीं कहा जा सकता है, विद्यावान (भले ही वे लौकिक विद्याओं से सम्पन्न हों) तभी कहे जा सकते हैं, जब बौद्धिक प्रतिभा, व्यावहारिक एवं सात्त्विक धर्मयुक्त बुद्धि, सिद्धान्तनिष्ठा, तत्वार्थश्रद्धा उनमें हों। उपनिषद् में एक सुन्दर आख्यान इस सम्बन्ध में मिलता है आचार्य मत उपकौशल ने अपनी पत्नी के दैदीप्यमान चेहरे की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि डाली और कहा-“भद्र ! मनुष्य की सम्पूर्ण सफलता और तेजस्विता का आधार विद्या है । भगवती ! जिस प्रकार अपनी कन्या विद्यायुक्त, गृहकार्य-निपुण और सुशील है, उसी प्रकार का विद्या एवं बौद्धिक प्रतिभा से सम्पन्न इसे वर मिलता तो सोने में सुहागे का कथन चरितार्थ हो जाता।" आचार्य-पत्नी ने कहा- "मार्यश्रेष्ठ ! ऐसे योग्य युवक की खोज करना आपके लिये तो कोई कठिन नहीं है। आपके विद्यालय में तो न केवल सामान्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy