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१८० आनन्द प्रवचन : भाग ११ नागरिकों के, अपितु कुरु, कौशल, कांची, मगध, ऊरु, अर्यमारण्य, उदीच्यायनीय, काम्बोज, वाराणसी और अंगिरा द्वीप तक के विशिष्ट छात्र विद्याध्ययन करने आते हैं । क्या उनमें से एक भी बालक आपकी कल्पना को साकार नहीं कर सकता ?"
आचार्य-"प्रिये ! विद्या का अर्थ केवल बौद्धिक प्रतिभा ही नहीं, अपितु विद्या का व्यावहारिक जीवन में नीतिनिपुण समावेश भी होता है। बाह्याचरण करने वाले व्यक्ति को तब तक शिक्षित, विद्वान् या विद्यावान नहीं कहा जा सकता, जब तक उसके अन्तःकरण से कलुषितता मिट न जाये । विद्वत्ता के साथ विराट ब्रह्म की आन्तरिक अनुभूति ही व्यक्ति को सर्वभूतात्मभूत बनाती है, तभी वह विद्यासम्पन्न कहला सकता है । ऐसा व्यक्ति विषम से विषम परिस्थिति में भी आत्मा को प्रताड़ित नहीं कर सकता । अपने स्वार्थ के लिए एक कीड़े को भी न छले, वही सच्चा विद्यावान है। मुझे सन्देह है कि विद्यावान की इस कठोर परीक्षा में मेरे गुरुकुल का एक भी स्नातक सफल हो। फिर भी एक सरल-सा उपाय अजमाकर देखता हूँ। सम्भव है, योग्य विद्यासम्पन्न विद्वान मिल जाये।"
आचार्यप्रवर ने अपने गुरुकुल के समस्त स्नातकों को आमंत्रित किया। जब सभी एकत्रित हो गये तब उन्होंने कहा- 'तात ! तुम सब जानते हो कि मेरी कन्या विवाह योग्य हो चुकी है। मेरे पास धन का अभाव है। आप सब अपने-अपने घर जाकर मेरी कन्या के लिए एक-एक आभूषण लाएं। जो सर्वश्रेष्ठ आभूषण लाएगा, उसी के साथ हम अपनी कन्या का पाणिग्रहण कर देंगे। किन्तु एक शर्त है, आभूषण लाने की बात गुप्त रखी जाए। माता-पिता तो क्या, अगर दाहिना हाथ आभूषण लाए तो बांया हाथ भी उसे जानने न पाए।"
द्रुमत उपकौशलाचार्य की कन्या असाधारण विदुषी, सुशीला और गुणवती थी। हर स्नातक का हृदय उसे पाने के लिए उत्सुक था। सभी स्नातक अपने-अपने पर गये और चुरा-छिपाकर आभूषण लाने लगे। जो भी स्नातक, जैसा आभूषण लेकर लाया, आचार्य उसे उसके नाम का लिखा कपड़ा लपेटकर एक ओर रख देते। कुछ ही दिनों में आभूषणों के अंबार लग गये; परन्तु जिस आभूषण की खोज थी, आचार्य प्रवर को अभी तक लाकर कोई न दे सका ।
सबसे अन्त में वाराणसी का राजकुमार ब्रह्मदत्त लौटा, निराश और खाली हाथ । आचार्य ने उत्सुकतापूर्वक उससे पूछा-"वत्स ! तुम कुछ भी नहीं लाये दिखते ?" वह विनयपूर्वक बोला-"हाँ, गुरुदेव ! आपने आभूषण लाने के साथ-साथ यह शर्त भी रखी थी कि कोई भी-बांया हाथ तक भी न देखने पाये; इस तरह से लाना । मेरे लिए यह शर्त पूरी करना असम्भव है। क्योंकि मैंने बहुत-सी युक्तियाँ लड़ाई, लेकिन कहीं भी ऐसा एकान्त तो मिल ही नहीं पाया।" आचार्य ने कृत्रिम प्रकोपवश विस्मयसूचक दृष्टि डालते हुए पूछा-"वत्स ! क्या तुम्हारे माता-पिता
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