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________________ अविद्यावान पुरुष : सदा असेन्य १८१ और अन्य कुटुम्बीजन सोते नहीं। रात में निकाल लेते आभूषण ! भला, सभी स्नातक आभूषण लाये हैं, तुम कैसे नहीं लाये ?" - ब्रह्मदत्त ने विनम्रभाव से उत्तर दिया-"गुरुदेव ! मनुष्यों से शून्य स्थान तो फिर भी मिल सकता है, पर मेरे अतिरिक्त मेरी आत्मा, अनन्तज्ञानी परमात्मा की उपस्थिति तो सर्वत्र सर्वकाल में है, उनसे छिपा तो कुछ भी नहीं रहता । फिर आपकी शर्त कैसे पूरी हो सकती थी ?" आचार्य की आँखें चमक उठीं । वे जिस आभूषण (श्रेष्ठ विद्यावान युवक) को चाहते थे, वही मिल गया। स्नातक ब्रह्मदत्त को उन्होंने हृदय से लगा लिया। अन्य सभी स्नातकों के आभूषण वापस लौटा दिये और कन्या के पाणिग्रहण की तैयारी में जुट गये। यह है, विद्यावान और अविद्यावान की परख का मापदण्ड ! विद्यावान वस्तु की भीतरी तह तक पहुँच जाता है, जबकि अविद्यावान उसकी ऊपरी सतह तक ही पहुँच पाता है। विद्यावान सूक्ष्मदृष्टि से वस्तुतत्त्व को समझ-जान लेता है, जबकि अविद्यावान स्थूलदृष्टि से वस्तु के बाह्य रूप-रंग, आकार-प्रकार को देखकर ही उसका स्थूल मूल्यांकन करता है । विद्यावान किसी के कथन का मर्म समझ लेता है, अविद्यावान इस मामले में बहुत पिछड़ा हुआ होता है। विद्यावान वस्तु को उसकी बाह्य चमक-दमक के या स्वार्थ, लोभ, काम और मोह के पहलू से नहीं देखता, वह वस्तु के अन्तरंग वस्तुतत्त्व का स्पर्श कर लेता है । वह इष्टवियोग या अनिष्टसंयोग से घबराता और रोता-चिल्लाता नहीं। अविद्याग्रस्त व्यक्ति पहले तो मोहवश किसी प्रिय लगने वाली वस्तु को इष्ट और अप्रिय लगने वाली को अनिष्ट मान लेता है, फिर इष्ट के संयोग से प्रसन्न और अनिष्ट के संयोग से विषादग्रस्त हो जाता है, तत्पश्चात् उस माने हुए इष्ट का वियोग या अनिष्ट का संयोग होता है तो वह हायतोबा मचाने लगता है। विद्यावान वस्तुतत्त्व समझकर शान्ति और समता के साथ तटस्थ रहता है। एक उदाहरण लीजिए बुद्धिमती सुमति की रग-रग में अध्यात्मविद्या रम गई थी। वह आज श्रमण भगवान् महावीर का अमृत प्रवचन सुनने गई थी। प्रवचन में उसने सुना-"जहां संयोग है, वहाँ वियोग अवश्यम्भावी है । आत्मा के सिवाय जगत् के प्रत्येक पदार्थ का वियोग होता है। आज जिसे जिस वस्तु के लिए हर्ष होता है, कल उसे उसी वस्तु के लिए शोक होगा। हर्ष और शोक, तड़फना और फूलना, ये दोनों एक ही तराजू के दो पलड़े हैं । आत्मसमाधि, या शान्ति का एक ही मार्ग है-समता, धैर्य या मोहत्याग । मोहत्याग आत्मा के एकत्व के ज्ञान में से पैदा होता है।" . सुमतिदेवी ने प्रभु के इस उपदेश को अपने हृदय की मंजूषा में रखा और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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