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आनन्द प्रवचन : भाग ११
इसी पर चिन्तन-मनन करती एवं अपने जीवन में क्रियान्वित करने का संकल्प करती हुई घर आ पहुँची । आज उसका पति आत्माराम घर में नहीं था, वह कहीं बाहर गया था । सहसा उसे कुछ लोगों से समाचार मिला- आज उसके दोनों पुत्र तालाब में स्नान करने गये थे । दोनों ही डूबकर मर गये हैं । पहले बड़ा लड़का नहाने के लिए तालाब में घुसा कि कीचड़ में फँस गया । उसे निकालने के लिए दूसरा लड़का तालाब में घुसा, किन्तु वह भी वहीं कीचड़ में फंस गया। दोनों डूब गये ।
सुमतिदेवी का मातृहृदय सहसा इस आघात से शोकग्रस्त हो जाना चाहिए था, परन्तु ज्यों ही शोक की लहर आई विद्यासम्पन्न सुमतिदेवी के हृदय में भगवान् महावीर के वे उद्गार गूंजने लगे - 'संयोग और वियोग में हर्ष और शोक करना अविद्यावानों का काम है, विद्यावानों का नहीं । प्रत्येक वस्तु जिसका संयोग होता है, एक न एक दिन हमसे बिछुड़ती है । यह तो संसार का अटल नियम है । इसमें शोक और चिन्ता की क्या बात है ?'
सुमतिदेवी का क्षणिक शोक वहीं शान्त हो गया, दिव्य ज्ञान के प्रकाश में बह स्वस्थ - आत्मस्थ हो गई ।
उसने अपने दोनों पुत्रों के शरीर बिछौने पर लिटा दिये, उन पर सफेद वस्त्र ओढ़ा दिया, और अपने पति के आगमन की प्रतीक्षा करती हुई चिन्तन-मग्न हो गई । आत्माराम ने ज्यों ही घर में पैर रखा, उसका आनन्द फीका हो गया । उसे वातावरण में कुछ शोक की लहर लगी । प्रतिदिन जब वह घर आता था, तब उसकी पत्नी प्रसन्न मुख से उसका स्वागत करती थी, पर आज तो वह उदास-सी बैठी थी । आत्माराम ने पूछा - "देवि ! आज उदास क्यों हो ? तुम्हारा चेहरा बता रहा है, मानो शोक छाया हो ।"
सुमतिदेवी ने पति को तत्त्व समझाते हुए कहा - " प्रिय ! नहीं है । अपने पड़ोसी निसर्गदेव से मैं दो रत्न कंकण कुछ वर्ष आज वह माँगने आये थे । इस पर मुझे उदासी आ गई। वापस लौटा दूँ ?”
भला
आत्माराम - " देवि ! क्या तुम इतना भी नहीं चीज लाई जाती है उसे वापिस लौटानी पड़ती है, चाहे वह सुन्दर क्यों न हो ?”
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ऐसी कोई बात
पहले लाई थी । ऐसे रत्न - कंकण कैसे
समझतीं कि जिसकी कोई कितनी ही कीमती और
सुमतिदेवी - " कैसे सुन्दर ये कैकण हैं ! कैसी इनकी घड़ाई है, इसकी जोड़ के रत्न - कंकण मिलते ही कहाँ हैं ? इसमें जड़े हुए रत्न भी कितने तेजस्वी हैं । मुझे तो वापस देने की इच्छा ही नहीं होती । मन होता है— रख लूँ । इसीलिए उदास बैठी हूँ, आपकी प्रतीक्षा में !"
आत्माराम --" इसमें मुझे क्या पूछना है देवि ! पराई वस्तु पर ममता करना
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