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अविद्यावान पुरुष : सदा असेव्य १८३
ठीक नहीं । पर-वस्तु को लौटा देना ही अच्छा है ! और फिर पराई अमानत वस्तु को 'मेरी' कहकर उसके देने में चिन्तित और दुःखित होना तो अविद्यावानों का कार्य है, अपना काम नहीं । पराई वस्तु तो जितनी जल्दी लौटाई जाए, उतना ही अच्छा है ।"
इस प्रकार आत्माराम को सिद्धान्त पर पक्का करके सुमतिदेवी खड़ी हुई । उसने पति का हाथ पकड़ा और उस तरफ चलने लगी, जहाँ उसके दोनों पुत्र चिरनिद्रा में लेटे हुए थे । उसका हाथ काँप रहा था । उसे चक्कर - सा आने लगा, परन्तु प्रभु आत्म-विद्या से ओत-प्रोत वाणी के बोल उसकी आत्मा को आश्वासन दे रहे थे । वह पति को अन्दर ले गई । उसने फूल से सुकोमल दोनों पुत्रों के मृतदेह पर से श्वेतवस्त्र उठाया। फिर आत्मविद्या के प्रकाश में कहा - " प्राणनाथ ! ये रहे अपने दोनों रत्नकंकण ! जिन्हें हमने निसर्ग (पुण्य) देव से प्राप्त किये थे । आज तक हमने इन्हें बड़े जतन से रखा, इन्हें पाला-पोसा, हमें ये थोड़े समय के लिये मिले थे। आज इनकी अवधि पूर्ण होने आ गई । इसलिए इन्हें निसर्गदेव को वापस दे रहे हैं - इन्होंने अपना मार्ग ले लिया है। ये हमारे नहीं थे, हमने इन्हें लोकव्यवहारवश अपने पुत्र माना था; और न ही हम इनके थे । इनके वियोग से रोना और शोक करना व्यर्थ है । अप से गई हुई वस्तु लौटकर नहीं आती । अच्छा हो, मौन की शान्ति के साथ हम इन्हें विदाई दें ।"
आत्माराम तो यह देखकर अवाक् और स्तब्ध हो गया । उसका चेहरा थोड़ी देर के लिए गमगीन हो गया । दोनों की आँखों से स्वाभाविक रूप से गंगा-यमुना बह चली, परन्तु उनके साथ आत्मविद्या का उज्ज्वल प्रकाश था ।
सचमुच, अध्यात्मविद्या जिसके जीवन में आ जाती है, उसका समस्त व्यवहार सिद्धान्तसंगत, निश्चयदृष्टि से समन्वित होता है । वह हर्ष - शोक में मूढ़ नहीं बनता । वह विपत्ति में सदा धैर्य, अभ्युदय होने पर सहिष्णुता, धर्माधर्म में विवेक और दूसरों के प्रति उदारता रखता है ।
विद्यावान और अविद्यावान में सूक्ष्म अन्तर इतना होने पर भी विद्यावान और अविद्यावान में एक विशेष अन्तर रहता है। विद्यावान और अविद्यावान एक-सी कई क्रियाएं करते हैं, परन्तु उनकी दृष्टि में अन्तर होने से परिणामों में अन्तर आता है । विद्यावान केवल वाणीशूर नहीं होता या केवल जानकारी करके ही नहीं रह जाता, वह ज्ञान के साथ-साथ आचरण भी करता है । जबकि अविद्यावान विद्यावान की अपेक्षा किसी विषय की सूक्ष्म और विस्तृत व्याख्या कर सकता है, परन्तु आचरण से शून्य होता है । इसीलिए भगवान महावीर ने कहा है—
भता अकरेंता य बन्धमोक्ख पइण्णिणो । वायावीरियमेत्तेण समासासेंति अप्पयं ॥ १
१. उत्तराध्ययन अ० ६, गा० १०
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