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________________ पूछो उन्हीं से, जो पण्डित हों २५३ तरह साहसपूर्वक स्वीकार करने की क्षमता विकसित करनी चाहिए। ऐसा करने से उसकी प्रतिष्ठा कम नहीं होगी । अब खण्डन या शास्त्रार्थ का युग बीत गया । आरोप-प्रत्यारोप, काट-छाँट या उखाड़ - पछाड़ की भाषा आज की पीढ़ी को पसंद नहीं । वर्तमान युग में जब कि व्यक्ति तर्कप्रधान हो गया है, ज्ञान के नये-नये आयाम तेजी से खुलते जा रहे हैं, अन्धश्रद्धा की गोलियाँ देकर समाज को सुलाया तो जा सकता है, पर जीवन्त नहीं रखा जा सकता, न अधिक दिनों तक भरमाया जा सकता है। दूसरे की लकीर को मिटाकर अपनी लकीर को बड़ा बनाना गर्हित कार्य है । उचित यही है कि पण्डितजन स्थितप्रज्ञ तथा शान्ति और समता के दूत बनकर संयम और पुरुषार्थ का अवलम्बन लेकर दूसरे की लकीर को मिटाए बिना अपनी लकीर को बड़ी बनाएं। इसी रूप में अपनी भावी भूमिका का निर्धारण करके कर्त्त व्याचरण करें । ऐसे अनेक समाजोपयोगी कार्य हैं, जिन्हें पण्डितजन पूरे कर सकते हैं । कुछ कार्यों के संकेत मैं दे रहा हूँ (१) वर्तमान युग की भाषा में शास्त्रों का सम्पादन करें । (२) सरल और सस्ता शोधपूर्ण साहित्य सम्पादित हो, तथा घर-घर में उसके प्रचार-प्रसार की व्यवस्था हो । (३) जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जैनत्व की सुरक्षा कैसे हो सकती है ? इस विषय पर चिन्तनपूर्ण लेख प्रस्तुत करें । (४) विज्ञान के साथ धर्म का मेल बिठाकर उसे वर्तमान की युग भाषा तथा सन्दर्भ में व्यक्त करें । (५) नई पीढ़ी को धर्म के अध्ययन की ओर उन्मुख करने हेतु प्रयत्न किये जायें । (६) जैनधर्म और संस्कृति को केवल दार्शनिक भाषा में बन्द न रखकर उनका आरोग्य, विज्ञान, समाजविज्ञान, मनोविज्ञान, राष्ट्रीयता आदि के साथ सामंजस्य बिठाकर प्रस्तुत किये जाएँ । (७) विद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में धर्मतत्त्व को प्रसारित किया जाये । वर्तमान पण्डित का श्रोता श्रद्धालु नहीं, तार्किक है; वह शास्त्र को कम और विश्व की गतिविधि को अधिक जानता है । 'शास्त्र में यह लिखा है' कहकर उसे वह सन्तुष्ट नहीं कर सकता । शास्त्र की उक्तियों के साथ आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की उक्तियों, युक्तियों एवं अनुभूतियों के साथ संगति बिठाकर उसे प्रस्तुत करना होगा । आषं संदधीत, न तु विघट्टयेत् — ऋषि वचनों के साथ संगति बिठाये, उसे खण्डित न करे । बन्ध और मोक्ष की चर्चा से पहले दिमागी तनाव और सामाजिक विद्वेष-बिखराव से मुक्त होने की चर्चा करे । जब तक यह दृष्टि नहीं आती, तब तक पण्डितवर्ग, न तो युगानुरूप दिशाबोध देने में सक्षम हो सकता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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